Tritiya Samullas
तृतीय-समुल्लास:
अध्ययनाध्यापन-विधि:
सच्चे एवं अमुल्याभूषण
सन्तानों को उत्तम विद्या, शिक्षा, गुण-कर्म और स्वभावरूप आभूषणों का धारण कराना माता, पिता, आचार्य और सम्बन्धियों का मुख्य कर्म है | सोने, चांदी, माणिक, मोती, मूंगा, आदि रत्नों से युक्त आभूषणों को धारण करने से मनुष्य की आत्मा सुभूषित कभी नहीं हो सकती, क्योंकि आभूषणों के धारण करने से केवल देहाभिमान, विषयासक्ति और चोर आदि का भय तथा मृत्यु का भी सम्भव है | संसार में देखने में आता है कि आभूषणों के योग से बालकादिकों का मृत्यु दुष्टों के हाथ से होता है |
सच्चे आभूषण कौन-से हैं- विद्याविलासमनसो धृतशीलशिक्षा: सत्यव्रता रहितमानमलापहारा: |
संसारदुःखदलनेन सुभूषिता ये धन्या नरा विहितकर्मपरोपकारा: ||
जिन पुरुषों का मन विद्या के विलास में तत्पर रहता, सुन्दर शीलस्वभावयुक्त, सत्यभाषणादि नियमपालनयुक्त और जो अभिमान, अपवित्रता से रहित, अन्य की मलिनता के नाशक, सत्योपदेश, विद्यादान से संसारी जनों के दु:खों के दूर करने से सुभूषित, वेदविहित कर्मों से परोपकार में तत्पर रहते हैं- वे नर और नारी धन्य हैं |
इसीलिए जब बालक आठ वर्ष के होँ तभी लड़कों को लड़कों की और लड़कियों को लड़कियों की पाठशाला में भेज दें |
गुरुकुल=शिक्षणालय के नियम
१. द्विज अपने घर में लड़कों का यज्ञोपवीत और कन्याओं का यथायोग्य [ मुंडन आदि पर बल ना देते हुए ] संस्कार करके यथोक्त आचार्यकुल अर्थात् अपनी-अपनी पाठशाला में भेज देवें |
२. जो अध्यापक पुरुष वा स्त्री दुष्टाचारी होँ उनसे शिक्षा ना दिलाएँ, किन्तु जो पूर्ण विद्यायुक्त, धार्मिक होँ उनसे ही शिक्षा दिलाएँ |
३. विद्या पढ़ने का स्थान ग्राम वा नगर से चार कोस दूर एकान्त, शान्त स्थान में होना चाहिए तथा लड़के लड़कियों की पाठशालाएँ भी एक दूसरे से एक कोस दूर होनी चाहिएँ | इन गुरुकुलों में जो अध्यापक, अध्यापिका, नौकर-चाकर होँ वे कन्याओं की पाठशाला में सब स्त्री और पुरुषों की पाठशाला में पुरुष होँ | स्त्रियों की पाठशाला में पाँच वर्ष का लड़का और पुरुषों की पाठशाला में पाँच वर्ष की लड़की भी न जाने पाए |
४. सबको तुल्य वस्त्र, खान-पान, आसन दिये जाएँ, चाहे वे राजकुमार वा राजकुमारी होँ, चाहे दरिद्र के सन्तान होँ- सबको तपस्वी होना चाहिए |
५. विद्यार्थीगण न तो अपने माता-पिता से मिल ही सकें और न किसी प्रकार का पत्र-व्यवहार ही कर सकें, जिससे वे संसार की चिंता से मुक्त होकर केवल विद्या बढानें की चिन्ता रखें | जब भ्रमण करने के लिये जाएँ, तब अध्यापक उनके साथ रहें जिससे किसी प्रकार की कुचेष्टा न कर सकें और न आलस्य-प्रमाद करें |
शिक्षा के लिए राज एवं जाति-नियम
इस प्रकार के राज-नियम और जाति-नियम होने चाहिएँ कि पाँचवें अथवा आठवें वर्ष के आगे कोई भी माता-पिता अपने लड़कों-लड़कियों को घर में न रख सकें, पाठशाला में अवश्य भेज दें | जो न भेजें वे दण्डनीय होँ | यही बात महर्षि मनु ने कन्यानां साम्प्रदानं च कुमाराणा च रक्षणम् | [ ७ | १५२ ] इन शब्दों में व्यक्त की है |
गायत्री-मन्त्र का उपदेश
माता-पिता वा अध्यापक पुत्र-पुत्रियों का यज्ञोपवीत करके उन्हें अर्थ-सहित गायत्री-मन्त्र का उपदेश कर दें | यह मन्त्र निम्न है-
ओउम् भूर्भुवः स्वः | तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि | धियों यो नः प्रचोदयात् || -यजु० ३६ | ३
(ओउम्) सर्वरक्षक प्रभु (भू:) सब जगत् के जीवन का आधार, प्राणों से भी प्रिय और स्वम्भू है (भूवः) वह सब दु:खों से रहित और उसके संग से जीव सब दु:खों से छूट जाते हैं (स्वः) वह जगत में व्यापक हो के सबको धारण कर रहा है, अतः उसका नाम 'स्वः' है | ये तीन महाव्याह्रतियाँ कहाती हैं |
(सवितुः) सब जगत् के उत्पादक और सब ऐश्वर्य के प्रदाता (देवस्य) सब सुखों के देने वाले ओर जिसकी प्राप्ति की सब कामना करते हैं, उस परमात्मा का जो (वरेण्यम्) स्वीकार करने योग्य, अतिश्रेष्ठ (भर्गः) शुद्धस्वरूप और पवित्र करनेवाला चेतन ब्रह्मस्वरूप है (तत्) उसी परमात्मा के स्वरूप को हम लोग (धीमहि) धारण करें | किस प्रयोजन के लिये कि (यः) जो सविता देव परमात्मा (नः) हमारी (धियः) बुध्दियों को (प्रचोदयात्) प्रेरणा करें, अर्थात् बुरे कर्मों से छुडाकर अच्छे कामों में प्रवृत करे |
ब्रह्मयज्ञ अथवा सन्ध्योपासन
गायत्री-मन्त्र का उपदेश करके जो स्नान, आचमन, प्राणायाम, आदि क्रियाएँ हैं, उन्हें सिखलावें | स्नान से शरीर के बाह्य अवयवों की शुद्धि और आरोग्यता प्राप्त होती है | आचमन- उतने जल को हथेली में लें कि वह जल कण्ठ के नीचे हृदय तक ही पहुँचे, न उससे अधिक और न न्यून | फिर हथेली के मूल और मध्यदेश में ओष्ठ लगा कर आचमन करें | आचमन से कण्ठस्थ कफ और पित्त की निवृति थोड़ी-सी होती है | तत्पश्चात् मार्जन अर्थात् मध्यमा और अनामिका अंगुली के अग्रभाग से नेत्रादि अँगों पर जल छिडकें | इससे आलस्य दूर होता है | जो आलस्य और जल प्राप्त न हो तो न करें | पुनः समन्त्रक प्राणायाम, अघमर्षण, अर्थात् पाप करने की इच्छा भी न करें, पश्चात् मनसा-परिक्रमण, उपस्थान तथा परमेश्वर की स्तुति-प्रार्थना और उपासना की रीति सिखलावें |
यह सन्ध्योपासन एकान्त, शान्त स्थान में एकाग्रचित्त होकर करें | संध्या और अग्निहोत्र सायं-प्रातः दो ही कालों में करें, क्योंकि दो ही रात-दिन की सन्धि बेलाएँ हैं, अन्य नहीं | न्यून-से-न्यून एक घंटा ध्यान अवश्य करें | जैसे समाधिस्थ होकर योगी लोग परमात्मा का ध्यान करते हैं वैसे ही सन्ध्योपासन भी किया करें | सन्ध्योपासन को ब्रह्मयज्ञ भी कहते हैं |
प्राणायाम की विधि और लाभ
जैसे अत्यन्तवेग से वमन होकर खाया-पिया अन्न और जल बाहर निकल जाता है, वैसे ही प्राण को बल से बाहर फेंकके बाहर ही यथाशक्ति रोक दे और मूलेन्द्रिय को ऊपर खींच रखे | ऐसा करने से प्राण बाहर अधिक ठहर सकता है | जब घबराहट हो तब धीरे-धीरे वायु को भीतर ले के फिर भी वैसा ही करता जाए, जितना सामर्थ्य तथा इच्छा हो और मन में 'ओउम्' का जप करता जाए | इस प्रकार करने से आत्मा तथा मन की पवित्रता और स्थिरता होती है |
प्राणायाम चार प्रकार का होता है -१.बाह्यविषय,२ आभ्यन्तर,३ स्तम्भवृति और ४.बाह्याभ्यन्तराक्षेपी |
१. बाह्यविषय- अर्थात् प्राण को बाहर ही अधिक रोकना |
२. आभ्यन्तर- अर्थात् भीतर जितना प्राण रोका जा सके उतना रोकना |
३. स्तम्भवृति- अर्थात् एक ही बार जहाँ-तहाँ प्राण को यथाशक्ति रोक देना |
४. बह्याभ्यान्तराक्षेपी- अर्थात् जब प्राण भीतर से बाहर निकलने लगे तब उससे विरुद्ध न निकलने देने के लिए बाहर से भीतर ले और जब बाहर से भीतर आने लगे तब भीतर से बाहर की ओर प्राण को धक्का देकर रोकता जाए | ऐसे एक-दूसरे के विरुद्ध क्रिया करें तो दोनों की गति रूककर प्राण अपने वश में हो जाता है, फिर मन और इन्द्रियाँ भी वश में आ जाती हैं |
प्राणायाम से अशुद्धि का नाश और ज्ञान का प्रकाश होता है- जबतक मुक्ति नहीं होती तबतक उसके आत्मा का ज्ञान बराबर बढ़ता जाता है | जैसे अग्नि में तपाने से सुवर्णादि धातुओं का मल नष्ट हो कर वे धातु शुद्ध हो जाते हैं, वैसे ही प्राणायाम के द्वारा मन आदि इन्द्रियों के दोष क्षीण हो जाते हैं | मन तथा इन्द्रियाँ निर्मल हो जाती हैं, बल और पुरुषार्थ बढ़ जाता है | बुद्धि इतनी तीव्र और सूक्ष्म हो जाती है कि वह कठिन-से-कठिन और सूक्ष्म-से-सूक्ष्म विषय को ग्रहण कर लेती है | प्राणायाम करने वाला सब शास्त्रों को थोड़े ही काल में समझकर उपस्थित कर लेता है | प्राणायाम मनुष्य-शरीर में वीर्य की वृद्धि कर स्थिर बल, पराक्रम और जितेन्द्रियता प्रदान करता है | पुरुषों की भाँति स्त्रियों को भी प्राणायाम और योगाभ्यास करना चाहिए |
देवयज्ञ और अग्निहोत्र
देवयज्ञ का अर्थ है अग्निहोत्र और विद्वानों का संग एवं सेवा आदि | अग्निहोत्र का समय सूर्योदय के पश्चात् सूर्यास्त के पूर्व है | अग्निहोत्र के लिए निम्न उपकरणों की आवश्यकता है-
१. एक धातु अथवा मिट्टी की चौकोर वेदी इस प्रकार बनवा लें कि ऊपर जितनी चौड़ी हो उतनी ही गहरी हो, परन्तु नीचे का तल चतुर्थांश=चौथाई हो |
२. अग्निहोत्र के लिए चन्दन, पलाश वा आम्र आदि श्रेष्ठ काष्ठों के टुकड़े वेदी के परिमाण से छोटे-बड़े काट लिये जाएँ |
३. घृत रखने का पात्र और चमचा, सामग्री के लिए तश्तरियाँ, आचमन-पात्र आदि जुटा लिये जाएँ | ये पात्र- सोने, चाँदी, ताँबे अथवा काष्ठ के होँ |
इस तैयारी के पश्चात् 'पञ्चमहायज्ञविधि' में लिखे, सूर्योज्योति...... इत्यादि मन्त्रों से प्रत्येक मनुष्य को सोलह-सोलह आहुतियाँ देनी चाहिएँ | एक आहुति का परिमाण न्यून-से-न्यून छह-छह माशे घृतादि होना चाहिए और जो इससे अधिक करे तो बहुत अच्छा है | यदि अधिक आहुति देनी होँ तो 'विश्वानि देव' और 'गायत्री-मन्त्र' से दे लें | ब्रह्मचारियों के लिए केवल ब्रह्मयज्ञ और अग्निहोत्र ही करना होता है | शेष तीन महायज्ञों का विधान ब्रह्मचारी के लिए नहीं है |
यज्ञ के लाभ प्रश्न- यज्ञ से क्या लाभ हैं?
उत्तर- सब लोग जानते हैं कि दुर्गन्धयुक्त वायु और जल से रोग, रोग से प्राणियों को दुःख और सुगन्धित वायु तथा जल से आरोग्य और रोग के नष्ट होने से सुख प्राप्त होता है |
प्रश्न- चन्दनादि घिस के किसी के लगावे या घृतादि खाने को देवे तो बड़ा उपकार हो, अग्नि में ड़ालकर व्यर्थ नष्ट करना बुद्धिमानों का काम नहीं |
उत्तर- जो तुम पदार्थ-विद्या जानते तो ऐसी बात कभी नहीं कहते, क्योंकि किसी भी द्रव्य का अभाव कभी नहीं होता | देखो! जहाँ हवनहोता है वहाँ से दूर देश में स्थित पुरुष के नासिका से सुगन्ध का ग्रहण होता है वैसे दुर्गन्ध का भी, इतने ही से समझ लो कि अग्नि में डाला हुआ पदार्थ सूक्ष्म हो तथा फैल कर वायु के साथ दूर देश में जाकर दुर्गन्ध की निवृति करता है | प्रश्न- जब ऐसा ही है तो केशर, कस्तूरी, सुगन्धित पुष्प और इत्र आदि के घर में रखने से सुगन्धित वायु होकर सुखकारक होगा |
उत्तर- उस सुगन्ध का वह सामर्थ्य नहीं है कि दुर्गन्धयुक्त गृहस्थ वायु को बाहर निकाल कर शुद्ध वायु का प्रवेश करा सके, क्योंकि उसमें भेदक शक्ति नहीं होती | यह अग्नि का ही सामर्थ्य है कि उस वायु और दुर्गन्ध युक्त पदार्थों को छिन्न-भिन्न और हल्का करके बाहर निकालकर पवित्र वायु का प्रवेश कर देता है | प्रश्न- मन्त्र पढ़कर यज्ञ करने का क्या प्रयोजन है?
उत्तर- मन्त्रों में वह व्याख्यान है कि जिससे होम करने के लाभ विदित हो जाएँ और मन्त्रों की आवृति होने से कण्ठस्थ रहें | वेद-पुस्तकों का पठन-पाठन
और रक्षण भी हो |
प्रश्न- क्या यज्ञ न करने से पाप भी होता है?
उत्तर- हाँ, क्योंकि जिस मनुष्य के शरीर से जितना दुर्गन्ध उत्पन्न होके वायु और जल को बिगाड़कर रोगोत्पत्ति का कारण होने से प्राणियों को दुःख प्राप्त कराता है, उतना ही पाप उस मनुष्य को होता है, अतः उस पाप के निवारणार्थ उतना वा उससे अधिक सुगन्ध वायु और जल में फैलाना चाहिए | खिलाने-पिलाने से एक व्यक्ति को लाभ होता है | जितना घृत और सुगन्धादि पदार्थ एक मनुष्य खाता है उतने द्रव् य के होम से लाखों मनुष्यों का उपकार होता है, परन्तु यदि लोग घृतादि उत्तम पदार्थ न खाएँ तो उनके शरीर और आत्मा के बल की उन्नति न हो सके | इससे अच्छे पदार्थ खिलाना-पिलाना भी चाहिए, परन्तु उससे होम अधिक करना चाहिए | इसलिए प्राचीन आर्य शिरोमणि महाशय, ऋषि, महर्षि, राजे-महाराजे लोग बहुत-सा होम करते और कराते थे | जबतक होम करने का प्रचार रहा तबतक आर्यावर्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था, अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाए |
ब्रह्मचर्याश्रम
ब्रह्मचर्याश्रम में अपने समय की तन्मयता से विद्याध्ययन में बिताना ही उचित है | गुरु के समीप रहकर ३६ वर्ष, १८ वर्ष वा न्यून-से-न्यून ९ वर्ष तक अथवा जबतक विद्या पूर्ण न हो जाए तबतक ब्रह्मचर्य रखे |
ब्रह्मचर्य तीन प्रकार का होता है- कनिष्ठ, मध्यम और उत्तम | इनमें कनिष्ठ ब्रह्मचर्य यह है कि पुरुष, अर्थात् शरीर में शयन करने वाला जीवात्मा शुभ गुणों से संगत रहे | उसे आवश्यक है कि चौबीस वर्ष पर्यन्त जितेन्द्रिय अर्थात् ब्रह्मचारी रहकर वेदादि विद्या और सुशिक्षा को ग्रहण करे तथा विवाह करके भी लम्पटता न करे तो उसके शरीर में प्राण बलवान् होकर सब शुभ गुणों के वास कराने वाले होते हैं | इसे 'वसु' ब्रह्मचारी कहते हैं | इसकी आयु भी सत्तर वा अस्सी वर्ष की होगी |
मध्यम ब्रह्मचर्य यह है कि मनुष्य चालीस वर्षपर्यन्त ब्रह्मचारी रह कर वेदाभ्यास करे | ऐसा करने से उसके प्राण, इन्द्रियाँ, अन्तःकरणऔर आत्मा बलयुक्त होके सब दुष्टों को रुलाने और श्रेष्ठों का पालन करनेवाले होते हैं | इसे 'रूद्र' ब्रह्मचारी कहते हैं इसकी आयु भी सवासौ, डेढ़सौ वर्ष की होगी |
उत्तम ब्रह्मचर्य अड़तालीस वर्षपर्यन्त होता है | अड़तालीस वर्षपर्यन्त ब्रह्मचर्य रखनेवाले के प्राण उसके अनुकूल होकर सकल विद्याओं को ग्रहण करते हैं | इसकी आयु चारसौ वर्ष तक बढ़ सकती है | इसे 'आदित्य' ब्रह्मचारी कहते हैं |
जो मनुष्य इस ब्रह्मचर्य को प्राप्त होकर इसका लोप नहीं करते, वे सब प्रकार के रोगों से रहित होकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त होते हैं |
जीवन-यात्रा का सामान्य क्रम
आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'सुश्रुत' के अनुसार शरीर की चार अवस्थाएं हैं-
१. वृद्धि- सोलहवें वर्ष तक धातुओं की तेजी के साथ वृद्धि होती है |
२. यौवन- यह अवस्था सत्रहवें वर्ष से पच्चीसवें वर्षपर्यन्त कहाती है |इसमें स्त्री और पुरुष युवक और युवती कहाते हैं |
३. सम्पूर्णता- यह अवस्था छब्बीसवें वर्ष से चालीसवें वर्ष तक होती है | इसमें सब धातुओं की पुष्टि होती है |
४. किन्चित्परिहाणि- यह अवस्था चालीसवें वर्ष के पश्चात् आती है | इसमें सब धातुएँ क्रमशः घटने लगती हैं |
यही चालीसवाँ अथवा अधिक-से-अधिक अड़तालीसवाँ वर्ष विवाह के लिए सर्वोत्तम है |
स्त्री और पुरुष की विवाह आयु में कुछ भिन्नता भी होती है जैसे- पुरुष पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करे तो कन्या सोलह वर्ष तक, पुरुष तीस वर्ष ब्रह्मचारी रहे तो स्त्री सत्रह वर्ष तक, पुरुष छत्तीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करे तो स्त्री अठारह वर्ष तक, पुरुष चालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचारी रहे तो स्त्री बाईस वर्षपर्यन्त और पुरुष अड़तालीस वर्षपर्यन्त ब्रह्मचर्य का पालन करे तो स्त्री चौबीस वर्षपर्यन्त ब्रह्मचर्य का सेवन करना चाहिए | अड़तालीस वर्ष के पश्चात् पुरुष और चौबीस वर्ष के पश्चात् स्त्री को ब्रह्मचर्य न रखना चाहिए, परन्तु यह नियम विवाह करनेवाले पुरुष और स्त्रियों का है | जो विवाह करना ही न चाहें वे मरणपर्यन्त ब्रह्मचारी रह सकते होँ तो रहें, परन्तु यह काम पूर्ण विद्यावाले, जितेन्द्रिय और निर्दोष, योगी, स्त्री-पुरुष का है, क्योंकि काम के वेग को थामके इन्द्रियों को अपने वश में रखना बड़ा कठिन काम है |
गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके भी स्वाध्याय-प्रवचन=पठन-पाठन को तिलांजली नहीं देनी चाहिए अपितु उत्तम आचरण करते हुए पढ़ें और पढ़ावें | तप=धर्मानुष्ठान करते हुए, शम=बाह्येन्द्रियों को बुरे आचरण से रोकते हुए, दम=मन की वृत्ति को सब दोषों से हटाते हुए अग्निहोत्र, अतिथियों की सेवा, सन्तान और राज्य का पालन, तथा वीर्य की रक्षा करते हुए पढ़ते-पढ़ाते जाएँ |
ब्रह्मचारियों के लिए विशेष नियम
ब्रह्मचारी अहिंसा-वैरत्याग, सत्य-सत्य जानना, सत्य मानना, सत्य बोलना, सत्य लिखना और सत्य ही करना, अस्तेय-मन, वचन, कर्म से चोरी त्याग, ब्रह्मचर्य-उपस्थेन्द्रिय का संयम और अपरिग्रह-अत्यन्त लोलुपता, स्वत्वाभिमानरहित होना- इन पाँच यमों का सेवन सदा करता रहे | इसी प्रकार शौच-स्नानादि से बाह्य पवित्रता; सत्यभाषण, राग-द्वेषादि के त्याग से आन्तरिक पवित्रता, सन्तोष- निरुद्यम रहने का नाम सन्तोष नहीं है अपितु यथाशक्ति पुरुषार्थ करते हुए हानि-लाभ में हर्ष वा शोक न करना, तप- कष्ट सहन करते हुए भी धर्मयुक्त कर्मों का ही अनुष्ठान करना, स्वाध्याय-वेदादि शास्त्रों का पढ़ना-पढ़ाना और ईश्वरप्रणिधान- ईश्वर की भक्ति विशेष से अपने आत्मा को अर्पित रखना- इन पाँच नियमों का सेवन भी ब्रह्मचारी सदा करें |
यम और नियम दोनों का सेवन साथ-साथ करना चाहिए, क्योंकि जो यमों को छोड़ कर केवल नियमों का पालन करता है वह अधोगति को प्राप्त होता है | अत्यन्त कामातुरता और बिलकुल निष्कामता- ये दोनों ही उचित नहीं है, क्योंकि कामना के अभाव में वेदज्ञान एवं वेद-विहित कर्मों में भी प्रवृति नहीं होगी | स्वाध्याय, व्रत=ब्रह्मचर्य, सत्यभाषण आदि, अग्निहोत्र, वेदविहित कर्मोपासना आदि उत्तम कर्मों की कामना करनी ही चाहिए | साथ ही जैसे सारथि घोड़ों को नियम में रखता है वैसे ही मन और आत्मा को खोटे कर्मों में खेंच ले-जानेवाली, विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों के निग्रह में सदा प्रयत्न करता रहे, क्योंकि इन्द्रियों के वश में होकर जीवात्मा बड़े-बड़े दोषों को प्राप्त होता है और इन्द्रियों को अपने वश में करके अभीष्ट सिद्धि को प्राप्त होता है | जो दुष्ट- आचरण करनेवाला अजितेन्द्रिय पुरुष है उसके वेद, त्याग, यज्ञ, नियम और तप तथा अन्य अच्छे काम कभी सिद्धि को प्राप्त नहीं होते |
वेद के पढ़ने-पढ़ाने, सन्ध्योपासनादि पञ्चमहायज्ञों के करने और होम मन्त्रों में कभी अनध्याय=छुट्टी नहीं करनी चाहिए | जैसे श्वास-प्रश्वास सदा लिये जाते हैं, बन्द नहीं किये जाते वैसे ही नित्यकर्म प्रतिदिन करना चाहिए | जैसे झूठ बोलने में सदा पाप सत्य बोलने में सदा पुण्य होता है वैसे ही बुरे कर्म करने में सदा अनध्याय और अच्छे कर्म करने में सदा स्वाध्याय ही होता है |
ब्रह्मचारी को सदा नम्र तथा सुशील होना चाहिए और वृद्धों की सेवा करनी चाहिए | वृद्धों की सेवा से आयु, विद्या, यश और बल- ये चार सदा बढते हैं | विद्यार्थियों को सदा मधुर और शीतलता युक्त वाणीं ही बोलनी चाहिए | उपर्युक्त नियमों का पालन करते हुए ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी गुरु के समीप रहते हुए धीरे-धीरे वेद को पढ़ते जाएँ | जो वेद को न पढ़ कर अन्यत्र श्रम करता है वह अपने पुत्र-पौत्रों सहित शीघ्र ही शुद्रभाव को प्राप्त हो जाता है |
ब्रह्मचारी के व्रत
ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी- मद्य, मांस, गन्ध, माला, रस, स्त्री और पुरुष का संग, सभी प्रकार की खटाई, प्राणियों की हिंसा, तेल-मालिश, बिना निमित्त उपस्थेन्द्रिय का स्पर्श, आखों में अञ्जन, जुते और छत्र का धारण, काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोक, ईर्ष्या, द्वेष, नाचना, गाना, बाजा बजाना, जुआ खेलना, जिस किसी की मिथ्या कथा, निन्दा, मिथ्या-भाषण और दूसरे की हानि आदि कुकर्मों को सदा छोड़ देवें | सर्वत्र एकाकी सोवें और वीर्यस्खलित कभी न करें |
आचार्य को शिष्यों का उपदेश
आचार्य अपने शिष्यों को वेद-अध्ययन के पश्चात् समावर्तन के समय निम्न उपदेश देता है-
अब संसार में जाने पर प्रलोभन में फंसकर झूठ न बोलना अपितु सत्य ही बोलना, धर्म का ही आचरण करना अधर्म का नहीं, स्वाध्याय में कभी प्रमाद न करना | पूर्ण ब्रह्मचर्य से समस्त विद्याओं का ग्रहण और आचार्य के लिए प्रियधन [दक्षिणा] देकर विवाह करके सन्तानोत्पति करना | तू प्रमाद से सत्य को कभी मत छोडना, धर्म का त्याग कभी मत करना, आलस्य और प्रमाद से तू आरोग्य और चतुराई को, ऐश्वर्य की वृद्दि को और पढ़ने-पढ़ाने को कभी मत छोडना | विद्वानों, माता-पिता, आचार्य और अतिथि की सेवा में कभी प्रमाद मत करना | माता-पिता, आचार्य, अतिथि, में देवबुद्धि रखते हुए सदा उनकी सेवा करना | सत्य-भाषण आदि जो धर्मयुक्त कर्म हैं तुने उन्ही का सेवन करना है मिथ्या-भाषण आदि का नहीं | हमारे भी जो उत्तम चरित्र अर्थात् धर्मयुक्त कर्म होँ उनका ही ग्रहण करना, जो हमारे पापाचरण होँ उनका ग्रहण मत करना | हमारे मध्य में जो उत्तम विद्वान और धर्मात्मा ब्राह्मण है, उन्हीं के समीप बैठ और उन्हीं का विश्वास किया कर | दानशील बनना | श्रद्धा से देना, अश्रद्धा से देना, शोभा से देना, लज्जा से देना, भय से देना और प्रतिज्ञा से भी देना चाहिये | यदि कभी तुझे कर्म या शील के विषय में किसी प्रकार का सन्देह उत्त्पन्न हो जाए तो जो विचारशील, पक्षपातरहित योगी, अयोगी,१ करुणासागर, धर्मात्मा ज्ञानी पुरुष होँ,- जैसे वे धर्म-मार्ग में वर्तें वैसे तू भी वर्तना | यही हमारा आदेश, उपदेश, सन्देश तथा शिक्षा है और ऐसा ही तू आचरण करना | १. योगी न होते हुए भी जो व्यक्ति धर्म की कामना करनेवाला हो | धर्माचरण का महत्व
कहने, सुनने-सुनाने और पढ़ने-पढ़ाने का फल यही है की वेद और वेदानकूल स्मृतियों में प्रतिपादित धर्म का आचरण करना, क्योंकि जो धर्माचरण से रहित है वह वेद प्रतिपादित धर्मजन्य सुखरूप फल को प्राप्त नहीं हो सकता, जो विद्या पढ़कर धर्माचरण करता है वही सुख को प्राप्त होता है |
धर्माधर्म के लक्षण
वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः |
एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम् || -मनु० २ | १२
१. वेद, २. स्मृति, अर्थात् वेदानुकूल श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा लिखित मनुस्मृति आदि शास्त्र, ३. सत्पुरुषों का आचार और ४. अपने आत्मा को प्रिय सत्य-भाषण, चोरी-त्याग आदि- ये चार धर्म के लक्षण हैं | इन्ही से धर्म-अधर्म का निश्चय होता है | जो पक्षपातरहित न्याय, सत्य का ग्रहण तथा असत्य का सर्वथा परित्यागरूप आचार है, उसी का नाम धर्म और इससे विपरीत जो पक्षपातसहित अन्यायाचरण, सत्य का त्याग और असत्य का ग्रहणरूप कर्म है, उसी को अधर्म कहते हैं | जो पुरुष स्वर्ण आदि रत्न [अर्थ] और स्त्री-सेवन आदि [काम] में नहीं फँसते उन्हीं को धर्म का ज्ञान प्राप्त होता है | जो धर्म को जानने की इच्छा करें उन्हें वेद द्वारा धर्म का निश्चय बिना वेद के ठीक-ठीक नहीं होता |
विद्याभ्यास सभी के लिए आवश्यक
राजा को चाहिए कि वह क्षत्रिय, वैश्य और उत्तम शुद्रजनों को भी विद्या का अभ्यास अवश्य करावें, क्योंकि ब्राह्मण ही विद्याभ्यास करें तो विद्या, धर्म, राज्य और धनादि की वृद्धि कभी नहीं हो सकती | जब क्षत्रिय आदि विद्वान् होते हैं तब ब्राह्मण भी अधिक विद्याभ्यास करते और धर्म पथ में चलते हैं तथा विद्वान् क्षत्रियों के सामने पाखण्ड भी नहीं कर सकते | जब क्षत्रिय आदि अविद्वान् होते हैं तब ब्राह्मण जैसा अपने मन में आता है वैसा करते-कराते हैं | जब सब वर्णों में विद्या और सुशिक्षा होती है तब कोई भी पाखण्डरूप, अधर्मयुक्त मिथ्या व्यवहार नहीं चला सकता | इससे यह सिद्ध हुआ कि क्षत्रियादि को नियम में चलानेवाले ब्राह्मण और संन्यासी तथा ब्राह्मण और संन्यासी को सुनियम में चलाने वाले क्षत्रिय आदि होते हैं, इसलिए सब वर्णों के स्त्री-पुरुष में विद्या और धर्म का प्रचार अवश्य होना चाहिए |
पाँच प्रकार की परीक्षा
जो-जो पढ़ाना हो वह-वह अच्छी प्रकार परीक्षा करके पढ़ाना चाहिए | परीक्षा पाँच प्रकार से होती है-
१. जो-जो ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव और वेदों के अनुकूल हो, वह-वह सत्य और उससे विरुद्ध असत्य है |
२. जो-जो सृष्टिक्रम के अनुकूल है वह सत्य और जो-जो सृष्टिक्रम के विरुद्ध है, वह सब असत्य है | जैसे कोई कहे कि 'बिना माता-पिता के संयोग से लड़का उत्पन्न हुआ'- ऐसा कथन सृष्टिक्रम के विरुद्ध होने से सर्वथा असत्य है |
३. आप्त अर्थात् जो धार्मिक, विद्वान्, सत्यवादी और निष्कपटी लोग हैं, जो-जो उनके आचार और उपदेश के अनुकूल है वह-वह ग्राह्य और जो-जो विरुद्ध है वह-वह अग्राह्य है |
४. जो अपने आत्मा की पवित्रता और विद्या के अनुकूल है वह ग्राह्य और जो प्रतिकूल है वह अग्राह्य है, अर्थात् जैसे अपने को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है वैसे ही सर्वत्र समझ लेना कि मैं भी किसी को सुख वा दुःख दूंगा तो वह भी प्रसन्न और अप्रसन्न होगा |
५. जो-जो आठों प्रमाणों के अनुकूल है वह ग्राह्य और जो प्रतिकूल है वह अग्राह्य है | आठ प्रमाण निम्न हैं-
१. प्रत्यक्ष- जो चक्षु आदि इन्द्रियों और रूप आदि विषयों के सम्बन्ध से सत्य ज्ञान उत्पन्न होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं | जैसे रात्रि में खम्भे को देखकर सन्देह हुआ कि यह मनुष्य है या और कुछ, फिर उसके समीप जाने से निश्चय हुआ कि यह मनुष्य नहीं स्तम्भ है- इत्यादि प्रत्यक्ष के उदाहरण हैं |
२. अनुमान- किसी पदार्थ के चिन्ह देखने से उसी पदार्थ का यथावत् ज्ञान होने को अनुमान कहते हैं | जैसे पुत्र को देख के पिता का, पर्वत आदि में धुआँ देखकर अग्नि का ज्ञान होता है | अनुमान तीन प्रकार का होता है- १. पूर्ववत्- जहाँ कारण को देख के कार्य का ज्ञान हो वह पूर्ववत् कहलाता है जैसे बादलों को देखकर वर्षा का ज्ञान होता है |
२. शेषवत्- जहाँ कार्य को देख के कारण का ज्ञान हो वह शेषवत् कहलाता है | जैसे नदी के बढ़े हुए प्रवाह को देखकर ऊपर हुई वर्षा का ज्ञान होता है
३. सामान्यतोदृष्ट- जो कोई किसी का कार्य-कारण न हो, परन्तु किसी प्रकार का साधर्म्य एक-दूसरे के साथ हो | जैसे कोई भी बिना चले दूसरे स्थान पर नहीं पहुँच सकता, वैसे ही दूसरों का भी स्थानान्तर में जाना बिना गमन के कभी नहीं हो सकता |
३. उपमान- प्रत्यक्ष साधर्म्य=तुल्यधर्म से जो ज्ञान होता है उसे उपमान कहते हैं | जैसे- "जैसा यह देवदत्त है वैसा ही विष्णुमित्र है" अथवा "जैसी गाय होती है वैसी ही नीलगाय होती है |"
४. शब्दप्रमाण- जो आप्त अर्थात् पूर्ण विद्वान्, धर्मात्मा सत्यवादी महापुरुषों का उपदेश तथा ईश्वर का उपदेश वेद हैं, उन्हीं को शब्दप्रमाण जानो |
५. ऐतिह्य- इति+ह अर्थात् इस प्रकार का था | उसने इस प्रकार किया अर्थात् किसी के जीवन-चरित्र का नाम ऐतिह्य है |
६. अर्थापत्ति- जहाँ एक बात कहने से उससे भिन्न दूसरी बात भी अनायास समझी जाए, उसे अर्थापत्ति कहते हैं | "जैसे बादल के होने से वर्षा होती है"
इतना कहने से दूसरे ने जान लिया कि- "बादलों के बिना वृष्टि कभी नहीं हो सकती |"
७. सम्भव- जो बात सृष्टिक्रम के अनुकूल हो वह सम्भव कहलाती है | जैसे माता-पिता से सन्तान होती है, परन्तु यदि कोई कहे कि माता-पिता के संयोग के बिना सन्तानोत्पत्ति हुई, किसी ने मृतक जिलाये, समुद्र में पत्थर तैराये, चन्द्रमा के अंगुली से दो टुकड़े कर दिये- इत्यादि बातें असम्भव हैं, क्योंकि ये सब बातें सृष्टिक्रम के विरुद्ध हैं |
८. अभाव- जैसे किसी ने किसी से कहा कि "हाथी ले-आ"- वह वहाँ हाथी का अभाव देखकर जहाँ हाथी था वहाँ से ले-आया |
इन पाँच प्रकार की परीक्षाओं से मनुष्य सत्यासत्य का निश्चय कर सकता है, अन्यथा नहीं | इस प्रकार परीक्षा करके पढ़ें-पढाएँ अन्यथा विद्यार्थियों को सत्यबोध कभी नहीं हो सकता | जिन-जिन ग्रन्थों को गुरू लोग पढाएँ उन-उनकी पूर्वोक्त प्रकार परीक्षा करलें | जो इन परीक्षाओं पर सत्य ठहरें उन्हीं ग्रन्थों को पढाएँ और जो इन परीक्षाओं के विरुद्ध होँ उन ग्रन्थों को न पढाएँ |
पठन-पाठनविधि
सर्वप्रथम पाणिनि मुनिकृत 'शिक्षा' के द्वारा सब अक्षरों का उच्चारण माता, पिता एवं आचार्य सिखलाएँ | वर्णोंच्चारण शिक्षा से आरम्भ करके 'अष्टाध्यायी'
और 'महाभाष्य' को तीन वर्ष में पढ़के पूर्ण वैयाकरण होके वैदिक एवं लौकिक शब्दों का ज्ञान प्राप्त कर फिर अन्य शास्त्रों को शीघ्रता से सहज में पढ़-पढ़ा सकते हैं, क्योंकि व्याकरण में जितना परिश्रम करना पड़ता है उतना परिश्रम अन्य शास्त्रों में नहीं करना पड़ता | अष्टाध्यायी और महाभाष्य के पढ़ने से जितना बोध तीन वर्ष में होता है उतना बोध कुग्रन्थ अर्थात् कौमुदी आदि पढ़ने से पचास वर्ष में भी नहीं होता, क्योंकि महर्षि लोगों का आशय जहाँ तक हो सके वहाँ तक सुगम और जिसके ग्रहण करने में समय थोड़ा लगे इस प्रकार का होता है और क्षुद्राशय लोगों की मनसा ऐसी होती है कि जहाँ तक बने वहाँ तक कठिन रचना करनी, जिससे बड़े परिश्रम से पढ़के अल्प लाभ उठा सकें, जैसे पहाड़ का खोदना, कौड़ी का लाभ होना और आर्षग्रंथों का पढ़ना ऐसा है जैसे एक गोता लगाना और बहुमूल्य मोतियों को पाना |
व्याकरण के पश्चात्, यास्कमुनिकृत निघन्टु और निरुक्त छह या आठ महीने में सार्थक पढ़ें या पढ़ावें, अमरकोषादि में अनेक वर्ष व्यर्थ न खोवें | तदन्तर पिंग्गलाचार्यकृत छन्दोंग्रन्थ चार मास में पढ़के श्लोक बनाने की रीति सीखें | तत्पश्चात् मनुस्मृति, बाल्मीकीय रामायण और महाभारत के उद्योगपर्वान्तर्गत विदुरनीति आदि अच्छे-अच्छे प्रकरण पढ़ें जिनसे दुष्ट व्यसन दूर होँ और उत्तमता, सभ्यता प्राप्त हो | इनको एक वर्ष में पढ़ लें | तदनु दो वर्षों में ज्योतिश्शास्त्र, सुर्यसिद्धान्तादि जिसमें बीजगणित, अंक, भूगोल, खगोल और भूगर्भ विद्या है, इसको यथावत् सीखें | तत्पश्चात् सब प्रकार की हस्तक्रिया, यन्त्रकला आदि को सीखें, परन्तु जितने ग्रह, नक्षत्र मुहूर्त के विधायक ग्रन्थ हैं उन्हें झूठ समझ के न पढ़ें न पढ़ावें | अब दो वर्ष में ऋषिकृत व्याख्यासहित
पूर्वमीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य और वेदान्त- इन छह दर्शनों को पढ़ें, परन्तु वेदान्तसूत्रों को पढ़ने से पूर्व ईश आदि दश उपनिषदों को भी पढ़ लें | पश्चात् छह वर्षों में चारों ब्राह्मणोंसहित चारों वेदों को शब्द, अर्थसम्बन्ध सहित पढ़ें, क्योंकि बिना अर्थ के पढ़ना तो भार उठाना मात्र है | अर्थ-ज्ञानपूर्वक पढ़कर और ज्ञान से पापों को छोड़, पवित्र धर्माचरण के प्रताप से ही मनुष्य सर्वानन्द को प्राप्त होता है | विद्या विद्वान के लिए ही अपने स्वरूप को प्रकाशित करती है अविद्वानों के लिए नहीं, अतः जो कुछ पढ़ना-पढ़ाना वह अर्थ-ज्ञानसहित ही पढ़ना-पढ़ाना चाहिए |
इस प्रकार वेद पढ़कर 'चरक', 'सुश्रुत' आदि ऋषिप्रणीत वैद्यक शास्त्रों से आयुर्वेद का अध्ययन चार वर्षों में करें | जो शासन कार्य में जाना चाहें वे धनुर्वेद अर्थात् राजविद्या का अध्ययन करें | इसके दो भेद हैं- १. राजपुरुष-सम्बन्धी और २. प्रजा-सम्बन्धी | राजकार्य में सभा, सेना के अध्यक्ष, शस्त्रास्त्र विद्या और नाना प्रकार के व्यूहों का अभ्यास करना होता है | प्रजाकार्य में प्रजा का पालन और वृद्धि, दुष्टों को दण्ड देना आदि कार्य हैं इनको यथावत् सीखें | इस राजविद्या को दो-दो [चार] वर्ष में सीखें |
राजविद्या को सीखकर गन्धर्ववेद कि जिसको गानविद्या कहते हैं, उसमें राग, रागिणी, ताल आदि को और मुख्य करके सामवेद का गान वादित्र-वादनपूर्वक सीखें | इसके लिए नारदसंहिता आदि आर्षग्रन्थों को पढ़ें, परन्तु गदर्भ शब्दवत् व्यर्थालाप कभी न करें |१.-यहाँ समय नहीं लिखा | आयुर्वेद और धनुर्वेद के अध्ययन के लिए महर्षि ने चार-चार वर्ष का समय लिखा है अतः इन दोनों का समय भी चार-चार वर्ष ही होना चाहिए |
आर्षग्रन्थ-महत्त्व
ऋषिप्रणीत ग्रन्थों को इसलिए पढ़ना चाहिए कि इनके लेखक बड़े विद्वान्, सब शास्त्रवित् और धर्मात्मा थे और अनृषि अर्थात् जो अल्प शास्त्र पढ़े हैं और जिनका आत्मा पक्षपातसहित है, उनके बनाये हुए ग्रन्थ भी वैसे ही हैं |
त्याज्य-ग्रन्थ
ऋषिकृत ग्रन्थों में भी जो वेदविरुद्ध प्रतीत हो उसे छोड़ देना, क्योंकि वेद ईश्वरकृत होने से निर्भ्रान्त एवं स्वतःप्रमाण हैं, अर्थात् वेद का प्रमाण वेद से ही होता है | ब्राह्मण आदि सब ग्रन्थ परतःप्रमाण, अर्थात् इनका प्रमाण वेदाधीनहै | निम्न ग्रन्थ जालग्रन्थ हैं, इन्हें परित्याग के योग्य समझना चाहिए | व्याकरण में सारस्वत, मुग्धबोध, कौमुदी आदि | कोषों में अमरकोष आदि, ज्योतिष में शीघ्रबोध, मुहूर्त चिन्तामणि आदि | काव्य में नायिका भेद, रघुवंश, माघ, किरातार्जुनीय आदि | वैशेषिक में तर्कसंग्रह आदि | योग में हठयोगप्रदीपिका आदि | वेदान्त में योगवासिष्ठ, पञ्चदशी आदि | स्मृतियों में मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोक और अन्य सब स्मृतियाँ | सब तन्त्रग्रन्थ, सब पुराण, सब उपपुराण, तुलसीदासकृत भाषा-रामायण- ये सब कपोलकल्पित मिथ्या ग्रन्थ हैं | इन ग्रन्थों में थोड़ा सत्य भी है, परन्तु इनके साथ बहुत असत्य भी है, अतः ये उसी प्रकार त्याज्य हैं जैसे विष मिला हुआ अन्न | इनमें जो सत्य है वह वेदादि सत्य शास्त्रों का है और जो मिथ्या है वह उनके घर का है | वेदादि सत्य शास्त्रों के स्वीकार में सब सत्य का ग्रहण हो जाता है, अतः मिथ्या ग्रन्थों को छोड़ ही देना चाहिए | सबको वेद ही मान्य होने चाहिएँ | 'हमारा मत वेद है'- ऐसा ही मान कर सब मनुष्यों को विशेषकर आर्यों को एक मत होकर रहना चाहिए |
इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा, नाराशंसी- ये पाँचों ब्राह्मणग्रन्थों के ही अंश हैं | इनसे भागवतादि पुराणों का ग्रहण करना ठीक नहीं |
विद्या में विघ्न
विद्या पढ़ने-पढ़ानें में जो विघ्न हैं उन्हें छोड़ देवें | वे विघ्न निम्न हैं-
१. कुसँग अर्थात् दुष्ट विषयीजनों का संग |
२. दुष्ट व्यसन- मद्य आदि सेवन और वेश्यागमनादि |
३. बाल्यवस्था में विवाह अर्थात् पच्चीसवें वर्ष से पूर्व पुरुष और सोलहवें वर्ष से पूर्व कन्या का विवाह हो जाना |
४. पूर्ण ब्रहमचर्य का न होना | ब्रहम्चर्य से बल, बुद्दि, पराक्रम, आरोग्य, राज्य और धन कि वृद्दि न मानना |
५. राजा, माता-पिता और विद्वानों का प्रेम वेदादि शास्त्रों के प्रचार में न होना |
६. अतिभोजन और अतिजागरण करना |
७. पढ़ने-पढ़ाने, परीक्षा लेने वा देने में आलस्य वा कपट करना |
८. विद्या के लाभ को सर्वोपरि न समझना |
९. ईश्वर का ध्यान छोड़के अन्य पाषाण आदि जड़ मूर्तिपूजा में व्यर्थ समय खोना |
१०. लोभ से धनादि में प्रवृत होकर विद्या में प्रीति न रखना |
११. इधर -उधर व्यर्थ घूमते रहना |
इत्यादि विद्या के विघ्न हैं | राजा और प्रजा को इन विघ्नों को दूर कर अपने लड़के और लड़कियों को विद्वान् एवं विदुषी बनाने के लिये तन, मन, धन से प्रयत्न करना चाहिए |
स्त्री और शूद्र को वेदाधिकार
“स्त्रीशुद्रो नाधीयातामिति श्रुतेः” -स्त्री और शूद्र न पढ़ें यह श्रुति [वेद का वचन] है |
यह वाक्य कपोलकल्पित है, किसी प्रामाणिक ग्रन्थ का नहीं है | सब स्त्री और पुरुष, अर्थात् मनुष्य मात्र को वेदादि शास्त्र पढ़ने-सुनने का अधिकार यजुर्वेद [२६ | २] में दिया गया है-
यथेमां वाचं कल्याणीमावादनी जनेभ्यः |
ब्रह्मराजन्याभ्या शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च |
परमात्मा उपदेश देते हैं कि जैसे मैं सब मनुष्यों के लिए इस कल्याणकारिणी, संसार और मुक्ति के सुख को देनेवाली वेदवाणी का उपदेश किया करता हूँ वैसे तुम भी किया करो | हमने [प्रभु ने] ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र, अपने भृत्य वा स्त्री आदि और अतिशुद्रादि के लिए भी वेदों का प्रकाश किया है |
इससे स्पष्ट है कि परमात्मा की दृष्टि में मनुष्यमात्र को वेद पढ़ने का अधिकार है | क्या परमेश्वर स्त्री और शूद्रों का भला नहीं करना चाहता? क्या ईश्वर पक्षपाती है कि वेदों को पढ़ने-सुनने का शूद्रों के लिये निषेध और द्विजों के लिए विधि करे? जो परमेश्वर का अभिप्राय शुद्रादि के पढ़ाने-सुनाने का न होता तो इनके शरीर में वाक् और श्रोत्र-इन्द्रिय क्यों रचता? जैसे परमात्मा ने पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, चन्द्र, सूर्य और अन्न आदि पदार्थ सबके लिये बनाए हैं, वैसे ही वेद भी सबके लिए प्रकाशित किए हैं और जहाँ कहीं निषेध किया है उसका अभिप्राय यह है कि जिसको पढ़ने-पढ़ाने से कुछ भी न आये वह निर्बुद्धि और मुर्ख होने से शूद्र कहाता है, उसका पढ़ना-पढ़ाना व्यर्थ है | जो स्त्रियों के पढ़ने का निषेध करते हैं वह मूर्खता, स्वार्थपरता और निर्बुद्धिता का प्रभाव है | देखो अथर्ववेद [ ११ | ५ | १८ ] में कन्याओं के पढ़ने का प्रमाण- ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम् |
अर्थ- ब्रह्मचर्य-सेवन से वेदादि शास्त्रों को पढ़कर, पूर्णविद्या और उत्तम शिक्षा को प्राप्त करके और युवती होकर पूर्ण युवावस्थायुक्त पुरुष को प्राप्त हो |
श्रौतसूत्रों में कहा है- 'इमं मन्त्रं पत्नी पठेत्'- अर्थात् यज्ञ में स्त्री इस मन्त्र को पढ़े | यदि स्त्री वेदादि शास्त्र को न पढ़ी हो तो यज्ञ में स्वर-सहित मन्त्रों का उच्चारण और संस्कृत सम्भाषण कैसे कर सकेगी? शतपथ-ब्राह्मण में लिखा है कि गार्गी आदि वेदादि शास्त्रों को पढ़कर पूर्ण विदुषी हुई थीं |
देखो! आर्यावर्त्त के राजपुरुषों की स्त्रियाँ धनुर्वेद अर्थात् युद्ध-विद्या भी अच्छे प्रकार जानती थी | यदि वे युद्ध-विद्या को न जानती होतीं तो कैकेयी आदि दशरथ आदि के साथ युद्ध में क्योंकर जा सकतीं और युद्ध कर सकतीं | सुशिक्षिता स्त्री ही घर को सुन्दर बना सकती है | वैद्यकविद्या-निपुण स्त्री घर को स्वर्ग बनाएँगी और शिल्पविद्या निपुण स्त्री घर को शोभावाला बनाएँगी, अतः स्त्रियों को वेद आदि शास्त्र पढ़ने और पढ़ाने ही चाहिएँ |
जिस देश में यथायोग्य ब्रह्मचर्य, विद्या और वेदोक्त धर्म का प्रचार होता है वही देश सौभाग्यवान् होता है, अतः जितना बन सके उतना प्रयत्न तन, मन, धन से विद्या-वृद्धि में करना चाहिए |
इति तृतीयः समुल्लासः सम्पूर्णः || ३ ||