Pratham Samullas
"ओउम्"
प्रथम-समुल्लास:
ओउम् शन्नों मित्र: शं वरुण: शन्नो भवत्वर्यमा | शन्न इन्द्रो ब्रहस्पति: शन्नो विष्णुरुरुक्रमः | नमो ब्रह्मणे नमस्ते वायो त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि | त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि | ऋतं वदिष्यामि | सत्यं वदिष्यामि | तन्मामवतु तद्वक्तारमवतु | अवतु मामवतु वक्तारम |
ओउम् शान्तिश्शान्तिश्शान्तिः
परमेश्वर का निज एवं सर्वोतम नाम
परमात्मा के गुण -कर्म और स्वभाव अनन्त हैं, अतः उसके नाम भी अनन्त हैं | उन सब नामों में परमेश्वर का 'ओउम्' नाम सर्वोतम है, क्योंकि यह उसका मुख्य और निज नाम है, इसके अतिरिक्त अन्य सभी नाम गौणिक है | जैसे हाथी के पैर में सभी के पैर आ जाते हैं, वैसे ही इस ओउम् नाम में परमात्मा के सभी नामों का समावेश हो जाता है | एक उदाहरण लीजिए | एक व्यक्ति का नाम कृष्णचंद्र है | यह किसी का पिता है, किसी का पुत्र, किसी का पति, किसी का भाई और किसी का चाचा, परन्तु ये पिता आदि उसके नाम नहीं हैं | उसका मुख्य और निज नाम तो कृष्णचंद्र है | ठीक इसी प्रकार परमात्मा का मुख्य और निज नाम तो ओउम् ही है | वेदादि शास्त्रों में भी ऐसा ही प्रतिपादन किया गया है | कठोपनिषद् में लिखा है |
सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति | यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् || -कठो० २ | २५
सब वे़द जिस प्राप्त करने योग्य प्रभु का कथन करते हैं, सभी तपस्वी जिसका उपदेश करते हैं, जिसे प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचर्य का धारण करते हैं, उसका नाम ओउम् है |
यह ओम् शब्द तीन अक्षरों के मेल से बना है-अ, उ और म् | इन तीन अक्षरों से भी परमात्मा के अनेक नामों का ग्रहण होता है, जैसे –
अकार से -विराट, अग्नि और विश्वादि |
उकार से -हिरण्यगर्भ, वायु और तैजस आदि |
मकार से -ईश्वर, आदित्य और प्राज्ञ आदि |
यहाँ इतना और जान लेना चाहिए कि अग्नि आदि ये नाम प्रकरणानुकूल अन्य पदार्थों के भी होते हैं, जहाँ जिसका प्रकरण हो वहाँ उसका ग्रहण करना चाहिए | जैसे किसी स्वामी ने अपने सेवक से कहा -"हे भृत्य! तू सैन्धव ले-आ |' तब उसे प्रकरण अर्थात् समय का विचार करना चाहिए, क्योंकि सैन्धव के दो अर्थ हैं- एक घोड़ा और दूसरा नमक | यदि स्वामी का कहीं जाने का विचार हो तो घोड़ा लाना चाहिए और यदि स्वामी भोजन कर रहा हो तो नमक लाना चाहिए | जो नौकर गमन (जाने के) समय में नमक और भोजन के समय घोड़ा लाकर खड़ा कर दे तो उसका स्वामी यही कहेगा कि तू प्रकरणावित् नहीं है |
इस प्रकार जहाँ-जहाँ स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना हो और जहाँ सर्वज्ञ, व्यापक, शुद्ध, सनातन और सृष्टिकर्त्ता आदि विशेषण लिखें हों वहाँ अग्नि आदि नामों से परमेश्वर का ग्रहण होता है | इसके विपरीत वायोरग्निः(तैतिरियोपनिषद ब्रह्म० १) - वायु से अग्नि उत्पन्न हुआ -इत्यादि स्थलों में जहाँ उत्पत्ति, प्रलय आदि का वर्णन और जड़ तथा अल्पज्ञ आदि विशेषण होँ वहाँ अग्नि आदि नामों से परमेश्वर का ग्रहण नहीं होता | एक दृष्टान्त लीजिए | एक शब्द है 'स्वामी' | जहाँ उपासना का विषय हो वहाँ स्वामी शब्द से परमेश्वर का नाम ग्रहण करना चाहिए तथा अन्य व्यवहार करने की वस्तुओं में प्रकरणानुसार संसार की वस्तुओं का ग्रहण करना चाहिए | जैसे -'हे स्वामिन! तू मुक्ति-प्रदाता है, हम तेरी शरण में हैं- इस वाक्य में स्वामी शब्द परमेश्वर के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, परन्तु 'हे स्वामिन! मास पूर्ण हो गया, हमारा वेतन दो'-यहाँ स्वामी से तात्पर्य ईश्वर से नहीं अपितु मनुष्य से है |
परमात्मा के सभी नाम सार्थक
जैसे संसार में दरिद्रादि का धनपति, अंधे का नयनसुख, वृद्ध का बालकराम और दुष्ट का भलेराम आदि नाम निरर्थक होते हैं वैसे परमात्मा का कोई भी नाम निरर्थक नहीं होता | परमात्मा के सभी नाम सार्थक हैं | परमात्मा के नाम कहीं गुणों के वाचक हैं, कहीं कर्मों के और कहीं स्वभाव के | जैसे स्वप्रकाश होने से 'अग्नि' है, विज्ञानस्वरूप होने 'मनु' है, सबका जीवनमूल होने से परमेश्वर का नाम 'ब्रह्म' है |
परमात्मा के सौ नाम
'ओउम्' के अतिरिक्त प्रभु के अनन्त नाम हैं, क्योंकि प्रभु के गुण-कर्म और स्वभाव अनन्त हैं | प्रत्येक गुण-कर्म-स्वभाव का एक-एक नाम है | जैसे- सब जगत का रचयिता होने के कारण परमात्मा 'ब्रह्मा' है, इस जगत का निर्माण करके सबके अन्दर व्याप्त होकर वे ही ब्रह्माण्ड को धारण कर रहे हैं, अतः उनका नाम 'विष्णु' है | सारे संसार का संहार करने के कारण वे 'रूद्र' हैं | सबका कल्याण करने के कारण वे 'शिव' हैं | सबसे श्रेष्ठ होने के कारण उनका नाम 'वरुण' है | बड़ों से भी बड़ा होने के कारण वह 'बृहस्पति' हैं | देवों का देव होने के कारण वे 'महादेव' हैं | समर्थों में समर्थ होने के कारण वह 'परमेश्वर' है | स्वयं आनन्दस्वरूप और सबको आनन्द देने के कारण वह 'चन्द्र' है सबका कल्याण कर्ता होने के कारण उसका नाम 'मंगल' है | बलवानों-से-बलवान होने के कारण उसका नाम 'वायु' है | इस प्रकार महर्षि ने इस समुल्लास में परमात्मा के सौ१ नामों की निरुक्ति की है, परन्तु इन सौ नामों के अतिरिक्त भी परमात्मा के अनेक नाम हैं | ये सौ नाम-सिन्धु में बिन्दुवत ही हैं |
१. स्वामी वेदानन्दजी ने सत्यार्थ-प्रकाश के सौ नामों की गणना इस प्रकार दी है- १.ओउम् २.ख़म् ३.ब्रह्म ४.अग्नि ५.मनु ६.प्रजापति ७.इन्द्र ८.प्राण ९.ब्रह्मा १०.विष्णु ११.रूद्र १२.शिव १३.अक्षर १४.स्वराट १५.कालाग्नि १६.दिव्य १७.सुपर्ण १८.गुरुत्मान् १९.मातरिश्वा २०.भू २१.भूमि २२.अदिति २३.विश्वधाया २४.विराट २५.विश्व २६.हिरण्यगर्भ २७.वायु २८.तैजस् २९.ईश्वर ३०.आदित्य ३१.प्राज्ञ ३२.मित्र ३३.वरुण ३४.अर्यमा ३५.बृहस्पति ३६.उरुक्रम ३७.सूर्य ३८.आत्मा,परमात्मा ३९.परमेश्वर ४०.सविता ४१.देव, देवी ४२.कुबेर ४३.पृथिवी ४४.जल ४५.आकाश ४६.अन्न ४७.अन्नाद,अत्ता ४८.वसु ४९.नारायण ५०.चन्द्र ५१.मंगल ५२.बुध ५३.शुक्र ५४.शनैश्चर ५५.राहु ५६.केतू ५७.यज्ञ ५८. होता ५९.बन्धु ६०.पिता,पितामह,प्रपितामह ६१.माता ६२.आचार्य ६३.गुरु ६४.अज ६५.सत्य ६६.ज्ञान ६७.अनन्त ६८.अनादि ६९.सच्चिदानंद ७०.नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव ७१.निराकार ७२.निरञ्जन ७३.गणेश ७४.गणपति ७५.विश्वेश्वर ७६.कूटस्थ ७७.शक्ति ७८.श्री ७९.लक्ष्मी ८०.सरस्वती ८१.सर्वशक्तिमान् ८२.न्यायकारी ८३.दयालु ८४.अद्वैत ८५.निर्गुण ८६.सगुण ८७.अन्तर्यामी ८८.धर्मराज ८९.यम ९०.भगवान् ९१.पुरुष ९२.विश्वम्भर ९३.काल ९४.शेष ९५.आप्त ९६.शंकर ९७.महादेव ९८.प्रिय ९९.स्वयम्भूऔर १००.कवि |
सगुण और निर्गुण
सगुण और निर्गुण नाम परस्पर विरुद्ध से प्रतीत होते हैं, क्योंकि लोक में साकार को सगुण और निराकार को निर्गुण कहतें हैं, परन्तु सगुण का अर्थ साकार नहीं हो सकता | सगुण का अर्थ है गुण-सहित और निर्गुण का अर्थ है गुण-रहित | परमात्मा सर्वज्ञता, पवित्रता, बल, पराक्रम, दयालुता आदि गुणों से युक्त हैं, अतः वह सगुण है तथा रूप, रस, स्पर्श, गन्ध आदि जड़ के गुणों, अविद्या, राग, द्वेष आदि क्लेशों और नस, नाड़ी आदि के बन्धन से रहित होने के कारण परमात्मा को निर्गुण कहते हैं |
जैसे पृथिवी गन्धादिगुणों से युक्त होने के कारण सगुण और इच्छादि गुणों से रहित होने से निर्गुण है वैसे ही जगत और जीव के गुणों से पृथक होने से परमेश्वर निर्गुण और सर्वज्ञादि गुणों से युक्त होने से सगुण है, अर्थात् ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है जो सगुणता और निर्गुणता से पृथक हो | जैसे चेतन के गुणों से पृथक होने से जड़ पदार्थ निर्गुण और अपने गुणों से सहित होने से सगुण, वैसे ही जड़ के गुणों से पृथक होने से जीव निर्गुण और इच्छादि अपने गुणों से सहित होने से सगुण- ऐसे ही परमेश्व्वर में भी समझना चाहिए |
परमेश्वर की ही स्तुति, प्रार्थना व उपासना
स्तुति, प्रार्थना और उपासना श्रेष्ठ की ही करनी चाहिए | श्रेष्ठ उसको कहते हैं जो गुण-कर्म-स्वभाव और सत्य-व्यवहारों में सबसे अधिक हो | उन सब श्रेष्ठों में भी जो अत्यंत श्रेष्ठ, उसे परमेश्वर कहतें हैं, क्योंकि उसके तुल्य न कोई हुआ, न है और न होगा | जब उसके तुल्य ही नहीं तो उससे उत्तम कैसे हो सकता है? जैसे परमेश्वर के सत्य, न्याय, दया, सर्वसामार्थ्य, सर्वज्ञत्वादि अनन्त गुण हैं, वैसे अन्य किसी जड़पदार्थ या जीव के नहीं हैं | जो पदार्थ सत्य हैं उसके गुण-कर्म-स्वभाव भी सत्य ही होते हैं | इसलिए मनुष्यों को योग्य कि परमेश्वर की ही स्तुति, प्रार्थना और उपासना करें उससे भिन्न की कभी न करें, क्योंकि ब्रह्मा, विष्णु, महादेव नामक पूर्वज महाशय विद्वान, दैत्य-दानव आदि निकृष्ट मनुष्य और अन्य साधारण मनुष्यों नें भी परमेश्वर ही में विश्वास करके उसी की स्तुति, प्रार्थना और उपासना की, उससे योsन्यां भिन्न की नहीं | हम सबको भी ऐसा ही करना चाहिए क्योंकि-
देवतामुपासते न स वेदयथा पशुरेव स देवानाम || -शतपथ० १४ | ४ | २ | २२
जो एक परमेश्वर को छोड़कर अन्य किसी देवता की उपासना करता है, वह कुछ भी नहीं जानता, वह विद्वानों में पशु ही है |
शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः ||
इस तीन बार शान्तिपाठ का प्रयोगन यह है कि संसार में जो तीन प्रकार के दुःख हैं उनकी निवृति हो जाए | वे तीन प्रकार के दुःख हैं-
१. आध्यात्मिक दुःख- ये वे दुःख हैं जो आत्मा और शारीर में अविद्या, राग, द्वेष, मूर्खता और ज्वर आदि के कारण होते हैं |
२. आधिभौतिक दुःख- ये वे दुःख हैं जो शत्रु, व्याघ्र और सर्पादि दूसरे प्राणियों से प्राप्त होते हैं |
३. आधिदैविक दुःख- ये वे दुःख हैं जो अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अतिशीत, अत्युष्णता, तथा मन और इन्द्रियों के विकार,अशुद्धि और चञ्चलता से उत्पन्न हैं|
मंगलाचरण
सब उत्तम कर्मों का आरम्भ 'ओउम्' का स्मरण करके ही करना चाहिए | ग्रन्थ के आरम्भ में भी 'ओउम्' अथवा 'अथ' लिखना चाहिए | प्राचीन् ऋषि-मुनि भी अपने ग्रन्थों के आरम्भ में 'ओउम्' या 'अथ' ही लिखते थे |
आजकल कुछ लोग 'श्रीगणेशाय नमः' 'हनुमते नमः' 'शिवाय नमः' 'दुर्गायै नमः' इत्यादि लिखते हैं- ये वेद और शास्त्रों के विरुद्ध होने से त्याज्य हैं
इसीप्रकार- नूतनजलधररुचये गोपवधुटीदुकूलचौराय |
तस्मै श्रीकृष्णाय नमः संसारमहीरुहस्य बीजाय ||
अर्थात- नवीन मेघ की कान्ति के समान कान्तिवाले, गोपों की स्त्रियों के वस्त्रों को चुरानेवाले और संसाररूपी वृक्ष के बीज श्रीकृष्ण को नमस्कार करता हूँ |
इस प्रकार के मंगलाचरण भी अवैदिक हैं | सांख्य- शास्त्र के अनुसार मंगलाचरण की परिभाषा निम्न है - मंगलाचरणम् शिष्टाचारात्फलदर्शनात्श्रुतितश्चेति | -सांख्य ५ | १
जो न्यायकारी, पक्षपात-रहित, सत्य, वेदोक्त ईश्वर की आज्ञा है उसी का यथावत् सर्वत्र और सदा आचरण करना मंगलाचरण कहलाता है | ग्रन्थ के आदि से लेकर समाप्ति पर्यन्त सत्याचार का करना ही मंगलाचरण है, न कि कहीं मंगल और कहीं अमंगल लिखना |
वैदिक लोग वेद के आरम्भ में 'हरिःओउम्' लिखते और पढ़ते हैं यह भी पौराणिक और तान्त्रिक लोगों की मिथ्या कल्पना है | जब ओउम् नाम सर्वश्रेष्ठ है तब उससे पूर्व किसी और नाम को स्थान देना ठीक नहीं | वेदादि शास्त्रों में हरि शब्द आदि में कहीं नहीं है, अतः हमें साम्प्रदायिक आग्रह से ऊपर उठकर तथा प्राचीन पद्धति को ध्यान में रखते हुए 'ओउम्' या 'अथ' शब्द ही ग्रन्थ के आदि और अन्त में लिखने चाहिएँ |
इति प्रथमः समुल्लासः सम्पूर्ण: || १ ||