Chaturth Samullas

चतुर्थ-समुल्लासः

समावर्तन, विवाह व गृहस्थाश्रम-विधि

समावर्तन

 नियमपूर्वक आचार्यकुल में रहता हुआ, चारों, तीन, दो अथवा एक वेद का सांगोपांग अध्ययन करके, जिसका ब्रह्मचर्य खण्डित न हुआ हो, वह पुरुष वा स्त्री गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे |

विवाह में गुरु की आज्ञा

 विद्या व्रत में स्नान कर, गुरू की आज्ञा लेकर गुरुकुल से लौटकर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य अपने वर्णानुकुल सुन्दर और उत्तम लक्षणों से युक्त कन्या से विवाह करे |

दूर और निकट विवाह करने के गुण-दोष

 जो कन्या माता के कुल की छह पीढ़ियों में और पिता के गोत्र की न हो, उस कन्या से विवाह करना उचित है, क्योंकि जैसी परोक्ष पदार्थ में प्रीति होती है, वैसी प्रत्यक्ष में नहीं | जैसे किसी ने मिश्री के गुण सुनें और खाई न हो तो उसका मन उसी में लगा रहता है, वैसे ही दूर देशस्थ अर्थात् जो अपने गोत्र वा माता के कुल में निकट सम्बन्ध की न हो, ऐसी कन्या के साथ विवाह से विशेष सुख प्राप्त होता है |

 निकट विवाह करने में दोष औए दूर विवाह करने में गुण निम्न हैं-

 १. जो बालक बाल्यावस्था से निकट रहते, परस्पर क्रीड़ा, लड़ाई और प्रेम करते, एक-दूसरे के गुण, दोष, स्वभाव, अथवा बाल्यावस्था के विपरीत आचरणों को जानते और जो नंगे भी एक-दूसरे को देखते हैं उनका परस्पर विवाह होने से प्रेम कभी नहीं हो सकता |

 २. जैसे पानी में पानी मिलाने से विलक्षण गुण नहीं होता, वैसे एक गोत्र, पित्र वा मातृकुल में विवाह होने में धातुओं में अदल-बदल न होने से उन्नति नहीं होती |

 ३. जैसे दूध में, मिश्री अथवा शुंठयादि औषधियों का योग होने से उत्तमता होती है, वैसे ही भिन्न गोत्र, मातृ-पितृकुल से पृथक् वर्तमान स्त्री-पुरुषों का विवाह होना उत्तम है |

 ४. जैसे यदि कोई एक देश में रोगी है तो वह दूसरे देश में वायु और खान-पान के बदलने से रोगरहित हो जाता है, वैसे ही दूर देशस्थों के विवाह होने में उत्तमता है |

 ५. निकट सम्बन्ध करने में एक-दूसरे के निकट होने से सुख-दुःख का भान और विरोध होना भी सम्भव है, दूर देशस्थों में नहीं और दूरस्थों के विवाह में

प्रेम की डोरी लम्बी बढ़ जाती है, निकटस्थ विवाहों में नहीं |

६. दूर-दूर देश के वर्तमान और पदार्थों की प्राप्ति भी दूर सम्बन्ध होने से सहजता से हो सकती है, निकट विवाह में नहीं | इसलिए यास्क ने दुहिता की व्युत्पत्ति करते हुए कहा है- दुहिता दुर्हिता दुरे हिता भवतीति- कन्या का नाम दुहिता इसलिए है कि इसका विवाह दूर देश में होने से हितकारी होता है, निकट होने में नहीं |

 ७. कन्या के पितृकुल में दारिद्रय होने का भी सम्भव है, क्योंकि जब-जब कन्या पितृ कुल में आएगी तब-तब इसको कुछ-न-कुछ देना ही होगा |

 ८. निकट होने से एक-दूसरे को अपने-अपने पितृकुल के सहाय का घमण्ड और जब कुछ भी दोनों में वैमनस्य होगा तब स्त्री झट ही पिता के कुल में चली जाएगी | इस प्रकार एक-दूसरे में निन्दा होगी और विरोध भी, क्योंकि प्रायः स्त्रियों का स्वभाव तीक्ष्ण और मृदु होता है |

 इन कारणों से पिता के गोत्र, माता की छह पीढ़ी और समीप देश में विवाह करना अच्छा नहीं |

विवाह में त्याज्य कुल

 निम्न दश कुल चाहे धन-धान्य से पूर्ण और हाथी-घोड़े आदि से समृद्ध भी क्यों न होँ, इनके साथ विवाह-सम्बन्ध नहीं करना चाहिए-

 १. सत्क्रिया=यज्ञादि उत्तम कर्मों से हीन, २. सत्पुरुषों से रहित, ३. वेदाध्ययन से विमुख, ४. शरीर पर बड़े-बड़े लोम्वाले, ५.बवासीर वाले ६. तपेदिक

 ७. जिस कुल में अग्निमन्दता से दमा, खाँसी आदि और आमाशय रोग हो, ८. मृगी हो, ९. श्वेतकुष्ट हो और १०. गलितकुष्ट हो- इन कुलों की कन्या और वर के साथ विवाह नहीं होना चाहिए, क्योंकि ये सब दुर्गुण और रोग विवाह करने वाले के कुल में भी प्रविष्ट हो जाते हैं |

 इसी प्रकार पीले वर्ण वाली=निर्बल, पुरुष से लम्बी-चौडी, अधिक बलवाली, रोगयुक्त, भूत बकवाद करनेवाली, तथा ऋक्ष=नक्षत्र, वृक्ष, नदी, पर्वत [ गेंदा, चम्पा, गंगा, यमुना, पार्वती ] पक्षी, सर्प, आदि नामवाली तथा भयंकर नामवाली कन्याओं के साथ विवाह नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये नाम कुत्सित और अन्य पदार्थों के भी हैं |

 जिस स्त्री के अंग सरल एवं सीधे होँ, जिसका नाम सुन्दर हो, जिसकी चाल हंस और हथनी के तुल्य हो, जिसके लोम, केश और दाँत सूक्ष्म होँ और जिसके सब अंग कोमल होँ- ऐसी स्त्री के साथ विवाह करना चाहिए |

 

विवाह का समय

 सोलहवें वर्ष से लेकर चौबीसवें वर्ष तक कन्या और पच्चीसवें वर्ष से लेकर अड़तालीस वर्ष तक पुरुष के विवाह का समय उत्तम है | इसमें स्त्री और पुरुष क्रम से सोलह और पच्चीसवें वर्ष में विवाह करें तो निकृष्ट, अठारह-बीस की स्त्री तथा तीस, पैतीस वा चालीस वर्ष के पुरुष का मध्यम और चौबीस वर्ष की स्त्री तथा अड़तालीस वर्ष के पुरुष का विवाह होना उत्तम है | जिस देश में इस प्रकार के श्रेष्ठ विवाह, ब्रह्मचर्यपालन और विद्याभ्यास होता है, वह देश सुखी होता है | इसके विपरीत जिस देश में ब्रह्मचर्य और विद्याग्रहण में अरुचि, बाल्यावस्था में और अयोग्यों का विवाह होता है, वह देश दुःख में डूब जाता है | अष्टवर्षा भवेद्गौरी नववर्षा च रोहिणी |

दशवर्षा भवेत्कन्या तत ऊर्ध्वं रजस्वला ||

 ये और इस प्रकार के श्लोक महर्षि पराशर के नाम पर घड़ लिये गये हैं | वस्तुतः आठ, नौ और दश वर्ष में विवाह का तो कुछ भी फल नहीं है, क्योंकि सोलहवें वर्ष के पश्चात् ही स्त्री का गर्भाशय पूरा और शरीर भी होने से सन्तान उत्तम होते हैं | पुरुष भी पच्चीसवें वर्ष में पहुँचकर ही गर्भाधान के योग्य होता है | मुनिवर धनवंतरिजी 'सुश्रुत' में लिखते हैं-

ऊनषोडशवर्षायामप्राप्तः पंचविंशतिम् |

यद्याधत्ते पुमान् गर्भं कुक्षिस्था स विपद्यते ||

जातो वा न चिरं जीवेज्जीवेद्वा दुर्बलेन्द्रियः |

 तस्मादत्यन्तबालायां गर्भाधानं न कारयेत् || -सुश्रुत० श० १० | ४७,४८

 सोलह वर्ष से न्यून अवस्था वाली स्त्री में पच्चीस वर्ष से न्यून वयवाला पुरुष यदि गर्भ स्थापित करे तो वह कुक्षिस्थ गर्भ विपत्ति को प्राप्त होता है, अर्थात्

पूर्णकाल तक गर्भाशय में रहकर उत्पन्न नहीं होता | यदि उत्पन्न हो जाए तो चिरकाल तक नहीं जीता, यदि जी भी जाए तो दुर्बल रहता है, अतः बाल्यावस्थावाली स्त्री में गर्भ स्थापित न करे |

सदृश पति की खोज

 कन्या रजस्वला होने के पश्चात् तीन वर्षपर्यन्त पति की खोज करके अपने तुल्य पति को प्राप्त होवे | चाहे लड़का-लड़की मरणपर्यन्त कुंवारे रहें, परन्तु असदृश, अर्थात् परस्पर विरूद्ध गुण-कर्म-स्वभाववालों का विवाह कभी नहीं होना चाहिए |

 

 

विवाह किसके अधीन

 विवाह में मुख्य प्रयोजन वर और कन्या का है, माता-पिता का नहीं, अतः माता-पिता, लड़का-लड़की, की प्रसन्नता के बिना उनका विवाह कभी न करें, क्योंकि एक दूसरे की प्रसन्नता से विवाह होने में विरोध बहुत कम होता है और सन्तान उत्तम होते हैं | अप्रसन्नता के विवाह में नित्य क्लेश ही रहता है

और- सन्तुष्टो भार्यया भर्त्ता भर्त्रा भार्या तथैव च |

 यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम् || -मनु० ३ | ३०

 जिस कुल में स्त्री से पुरुष और पुरुष से स्त्री सदा प्रसन्न रहती है उसी कुल में आनन्द, लक्ष्मी और कीर्ति निवास करती है और जहाँ विरोध तथा कलह होता है, वहाँ दुःख, दरिद्रता और निन्दा निवास करती है |

 इसलिए जैसी स्वयंवर की रीति आर्यावर्त्त में परम्परा से चली आती है वही विवाह उत्तम है | जबतक आर्य लोग ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़कर स्वयंवर विवाह करते थे तबतक यह देश उन्नति पर था, परन्तु जब बाल्यावस्था में और माता-पिता की अधीनता में विवाह होने लगा तब से क्रमशः आर्यावर्त्त देश की हानि होती चली आई है अतः इस दुष्ट काम को छोड़कर सज्जन लोग स्वयंवर विवाह करें |

वर्ण-व्यवस्था

 वर्ण-व्यवस्था गुण-कर्म-स्वभावानुसार होती है, जन्म से नहीं | क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र कुल में उत्पन्न होकर भी वह ब्राह्मण हो सकता है | देखो, छान्दोग्योपनिषद् में वर्णित जाबाल ऋषि अज्ञात कुल के, महाभारत में विश्वामित्र क्षत्रिय वर्ण और मातंग ऋषि चाण्डाल कुल के होने पर भी ब्राह्मण हो गये | अब भी जो उत्तम स्वभाववाला है वही ब्राह्मण के योग्य और मुर्ख शुद्र के योग्य होता है और आगे भी ऐसा ही होगा | रज-वीर्य के संयोग से ब्राह्मण शरीर नहीं बनता अपितु-

 स्वध्यायेन जपैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः |

 महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्यीयं क्रियते तनु; || -मनु० २ |२८

 पढ़ने-पढ़ाने विचार करने-कराने, नानाविधि होम के अनुष्ठान, सम्पूर्ण वेदों को शब्द, अर्थ, सम्बन्धपूर्वक तथा स्वरोच्चारण के साथ पढ़ने-पढ़ाने, पौर्णमास आदि यज्ञों के करने, धर्म से सन्तानों की उत्पत्ति, पञ्च महायज्ञों और अग्निष्टोमादि यज्ञों के करने, विद्वानों का संग एवं सत्कार करने, सत्यभाषण, परोपकार आदि सत्कर्म और शिल्पविद्या आदि पढ़कर दुष्टाचार को छोड़कर श्रेष्ठाचार में वर्त्तने से यह शरीर ब्राह्मण का किया जाता है |

 जो कोई रजवीर्य के योग से वर्णाश्रम व्यवस्था माने और गुण-कर्मों के योग से न माने तो उससे पूछना चाहिए कि जो कोई अपने वर्ण को छोड़ नीच, अन्त्यज अथवा क्रिश्चयन या मुसलमान हो गया हो तो उसको भी ब्राह्मण क्यों नहीं मानते? वह यही कहेगा कि उसने ब्राह्मण के कर्म छोड़ दिये, इसलिए वह ब्राह्मण नहीं है | इससे यह सिद्ध हुआ है कि जो ब्राह्मणादि उत्तम कर्म करते हैं वे ही ब्राह्मण आदि और जो नीच भी उत्तम गुण-कर्म-स्वभाववाला होवे तो उसको भी उत्तम वर्ण में गिनना चाहिए और जो उत्तम वर्णस्थ होकर नीच काम करे तो उसे नीच वर्ण में गिनना चाहिए | वेद में भी गुण-कर्म-स्वभावानुसार वर्ण-व्यवस्था का वर्णन है -

ब्राह्मणोsस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः |

 ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यांशूद्रो अजायत || -यजु० ३१ | ११

 परमात्मा की इस सृष्टि में जो मुख के सदृश सबमें मुख्य, अर्थात् सर्वोत्तम हो वह ब्राह्मण, जिसमें बल-वीर्य अधिक हो वह क्षत्रिय, कटी के अधो भाग और जानु के ऊपर वाले भाग का नाम ऊरू है | अतः जो सब देशों में व्यापार के निमित्त ऊरू के बल से आए-जाए वह वैश्य और पग अर्थात् नीचे अंग के सदृश मूर्खत्वादि गुणवाला शूद्र है |

 चारों वर्णों में जिस-जिस वर्ण के सदृश जो-जो पुरुष या स्त्री होँ वे उसी वर्ण में गिने जाएँ | महर्षि मनु ने भी कहा है-

शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम् |

 क्षत्रीयाज्ज्तमेवं तू विद्याद्वैश्या त्तथैव च || -मनु० १० | ६५

 जो शूद्रकुल में उत्पन्न होके ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के समान गुण-कर्म-स्वभाववाला हो तो वह शूद्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हो जाए | वैसे ही जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यकुल में उत्पन्न हुआ हो, परन्तु उसके गुण-कर्म-स्वभाव शूद्र के तुल्य होँ तो वह शूद्र हो जाए | इसी प्रकार क्षत्रिय या वैश्य के कुल में उत्पन्न होके ब्राह्मण अथवा शूद्र के समान होने से ब्राह्मण और शूद्र भी हो जाता है |

 इस विषय में आपस्तम्ब के निम्नलिखित दो सूत्र द्रष्टव्य हैं-

धर्मचर्यया जघन्यो वर्णः पूर्वं पूर्वं वर्णमापद्यते जातिपरिवृतौ |

 अधर्मचर्यया पूर्वो वर्णो जघन्यं वर्णमापद्यते जातिपरिवृतौ ||

 अर्थात् धर्माचरण से निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम-उत्तम वर्ण को प्राप्त होता है और वह उसी वर्ण में गिना जाता है, जिस-जिस वर्ण के वह योग्य होता है | अधर्माचरण से पूर्व-पूर्व अर्थात् उत्तम-उत्तम वर्णवाला मनुष्य अपने से नीचे-नीचे वर्णों को प्राप्त होता है और उसी वर्ण में गिना जाता है |

 जैसे पुरुष अपने गुण कर्मों के अनुसार अपने वर्ण के योग्य होता है, वैसी ही व्यवस्था स्त्रियों के सम्बन्ध में भी समझनी चाहिए |

वर्ण-व्यवस्था के लाभ

 गुण-कर्म-स्वभावानुसार वर्ण-व्यवस्था होने से सब वर्ण अपने-अपने गुण-कर्म और स्वभाव से युक्त होकर शुद्धता के साथ रहते हैं | वर्ण-व्यवस्था के ठीक परिपालन से ब्राह्मण के कुल में ऐसा कोई व्यक्ति न रह सकेगा जोकि क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र के गुण-कर्म-स्वभाववाला हो | इसी प्रकार अन्य वर्ण अर्थात् क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी अपने शूद्ध स्वरूप में रहेगें, वर्णसंकरता नहीं होगी |

 गुण-कर्मानुसार वर्ण-व्यवस्था में किसी वर्ण की निन्दा या अयोग्यता का भी अवसर नहीं रहता |

 ऐसी अवस्था रखने से मनुष्य उन्नतिशील होता है, क्योंकि उत्तम वर्णों को भय होगा कि यदि हमारी सन्तान मुर्खत्वादि दोषयुक्त होगी तो वह शूद्र हो जाएगी और सन्तान भी डरती रहेगी कि यदि हम उक्त चाल-चलनवाले और विद्यायुक्त न होंगे तो हमें शूद्र होना पड़ेगा |

 गुण-कर्मानुसार वर्ण-व्यवस्था होने से नीच वर्णों का उत्तम वर्णस्थ होने के लिये उत्साह बढ़ता है |

 गुण-कर्मों से वर्णों की यह व्यवस्था कन्याओं की सोलहवें और पुरुषों की पच्चीसवें वर्ष की परीक्षा में नियत करनी चाहिए और इसी क्रम से अर्थात् ब्राह्मण का ब्राह्मणी और शूद्र का शूद्रा के साथ विवाह होना चाहिए तभी अपने-अपने वर्णों के कर्म और परस्पर प्रीति भी यथायोग्य रहेगी |

वर्णों के कर्तव्य

इन चारों वर्णों के कर्तव्य-कर्म और गुण ये हैं | ब्राह्मण- अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा |

 दानं प्रतिग्रहश्चेव ब्राह्मणानामकल्प्यत् || -मनु० १ | ८८

 शमो दमस्तपः शौचं क्षन्तिरार्जवमेव च |

 ज्ञानं विज्ञानमास्तिवयं ब्रह्मकर्मस्वभावजम् || -गीता० १८ | ४२

 ब्राह्मण के पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना और दान लेना- ये छह कर्म हैं, परन्तु इनमे दान लेना नीच कर्म है | इनके साथ ही (शमः) मन से बुरे काम की इच्छा भी न करनी उसे अधर्म में कभी प्रवृत न होने देना (दमः) आँख, नाक, कान आदि इन्द्रियों को अन्यायाचरण से रोककर धर्म में चलाना (तपः) सदा ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय होके धर्मानुष्ठान करना (शौच) जल से बाहर की अपवित्रता और राग-द्वेष आदि को दूर कर भीतर से पवित्र रहना, (क्षान्ति) निन्दा-स्तुति, सुख-दुःख, हानि-लाभ में हर्ष-शोक छोड़कर धर्मानुष्ठान में दृढ रहना (ज्ञान) वेदादि शास्त्रों को सांगोपांग पढ़के पढ़ाने का सामर्थ्य और विवेक- सत्यासत्य का निर्णय, जो वस्तु जैसी हो अर्थात् जड़ को जड़ और चेतन को चेतन मानना, (विज्ञान) पृथिवी से लेकर परमेश्वर पर्यन्त पदार्थों को जानकर उनसे यथायोग्य उपयोग लेना, (आस्तिक्य) वेद, ईश्वर, मुक्ति, पुनर्जन्म, धर्म, माता-पिता आदि की सेवा को न छोड़ना और इनकी निन्दा कभी न करना- ये कर्म और गुण ब्राह्मण-वर्णस्थ मनुष्यों में अवश्य होने चाहिएँ |

क्षत्रिय- प्रजानां रक्षणम् दानमिज्याध्ययनमेव च |

 विषयेश्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः || -मनु० १ | ८९

 शोर्य तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् |

 दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् || -गीता० १८ | ४३

 (प्रजारक्षण) न्याय से प्रजा का पालन, (दान) विद्या और धर्म की वृद्धि के लिये सुपात्रों को दान देना, (इज्या) अग्निहोत्र आदि यज्ञ करना वा कराना, (अध्ययन) वेदादि शास्त्रों का पढ़ना-पढ़वाना, (विषयेश्वप्रसक्तिः) विषयों में न फँसकर जितेन्द्रिय रहके सदा शरीर और आत्मा से बलवान् रहना, (शौर्य) अकेला होने पर भी सैकड़ों, सहस्त्रों से भी युद्ध करने में भयभीत न होना, (तेजः) सदा तेजस्वी, दीनता रहित होना, (धृतिः) धैर्यवान् होना, (दाक्ष्यम्) राजा और प्रजा-सम्बन्धी व्यवहार और सब शास्त्रों में अति चतुर होना, (युध्ये चाप्यपलायनम्) युद्ध से पीठ न दिखाना, निर्भय और निःशंक होकर इस प्रकार से युद्ध करना कि अपनी विजय होवे और आप बचें | इसके लिए भागने और शत्रुओं को धोखा देने से जीत होती हो तो वैसा ही करना, (दानम्) दानशीलता रखना, (ईश्वरभावः) पक्षपातरहित होके सबके साथ यथायोग्य बर्त्तना, विचार के दण्ड देना, प्रतिज्ञा पूरी करना- ये ग्यारह क्षत्रिय वर्ण के कर्म और गुण हैं |

वैश्य- पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च |

 वाणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च || -मनु० १ | ९० (पशुरक्षा) गाय आदि पशुओं का पालन और वर्धन, (दानम्) विद्या और धर्म की वृद्धि करने-कराने के लिए धनादि का व्यय करना, (अध्ययनम्) वेदादि शास्त्रों का पढ़ना, (वाणिक्पथम्) सब प्रकार के व्यापार करना (कुसीदम्) एक सैकडे में चार, छह, बारह, सोलह, वा बीस आनों से अधिक व्याज और मूल से दुगुना अर्थात् एक रूपया दिया हो तो सौ वर्ष में भी दो रुपये से अधिक न लेना, न देना और (कृषि) खेती करना- ये वैश्य के गुण-कर्म हैं |

शुद्र- एकमेव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत् |

 ऐतेषामेव वर्णानां शुश्रुषामनसूयया || -मनु० १ | ९१

 शूद्र को योग्य है कि निन्दा, ईर्ष्या, अभिमान आदि दोषों को छोड़के ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की सेवा करते हुए अपने जीवन का निर्वाह करे | यही एक शूद्र का गुण-कर्म है |

 ये चार वर्ण प्रत्येक देश और समाज के लिए आवश्यक हैं | इनके बिना राष्ट्र में सुव्यवस्था हो ही नहीं सकती | आधुनिक भाषा में इनका नामकरण इस प्रकार किया जा सकता है- १. अध्यापक=Teachers, २. रक्षक= Warriors, ३. पोषक= traders, और ४. सेवक= Servant.

आठ प्रकार के विवाह

ब्राह्मो दैवस्तथैवार्ष: प्राजापत्यस्तथासsसुरः |

 गान्धर्वो राक्षस२चैव पैशाचश्चाष्टमोsधमः || -मनु० ३ | २१

 १. ब्राह्म- ब्रह्मचर्य से पूर्ण विद्वान् एवं विदुषी, धार्मिक और सुशील वर तथा कन्या का परस्पर प्रसन्नता से विवाह होना 'ब्राह्म' विवाह कहाता है |

 २. दैव- विस्तृत यज्ञ करने में ऋत्विक कर्म करते हुए जमाता को अलंकारयुक्त कन्या का देना 'दैव' विवाह है |

 ३. आर्ष- वर से कुछ लेकर विवाह करना आर्ष विवाह कहलाता है, परन्तु यह मत किसी-किसी आचार्य का है | महर्षि मनु ने कुछ भी लेने का खण्डन किया है | कुछ भी न ले-देकर दोनों की प्रसन्नता से पाणिग्रहण होना 'आर्ष' विवाह है |

 ४. प्राजापत्य- धर्म की वृद्धि के लिए दोनों का विवाह होना 'प्राजापत्य' विवाह है |

 ५. आसुर- वर और कन्या को कुछ देके विवाह होना 'आसुर' विवाह है |

 ६. गान्धर्व- अनियम, असमय किसी कारण से वर-कन्या का इच्छा पूर्वक परस्पर संयोग होना ‘गान्धर्व' विवाह कहलाता है |

 ७.राक्षस- लड़ाई करके बलात्कार अर्थात् छीन-झपट वा कपट से कन्या का ग्रहण करना 'राक्षस' विवाह कहलाता है |

 ८. पैशाच- शयन वा मद्यादि पी हुई पागल कन्या से बलात्कार, संभोग करना 'पैशाच' विवाह कहलाता है |

 इन सब विवाहों में ब्राह्म विवाह सर्वोत्कृष्ट, दैव, प्राजापत्य, आर्ष मध्यम, आसुर और गान्धर्व विवाह निकृष्ट, राक्षस अधम और पैशाच महाभ्रष्ट है | ब्राह्म, दैव, आर्ष और प्राजापत्य- इन चार विवाहों में पाणिग्रहण किये हुए स्त्री-पुरुषों से जो सन्तान उत्पन्न होते हैं वे ओजस्वी, तेजस्वी, संयमी, बुद्धि आदि उत्तम गुणयुक्त, धर्मात्मा और दीर्घायु होते हैं | शेष चार विवाहों द्वारा जो सन्तान उत्पन्न होती है वह मिथ्यावादी, वेदधर्म-द्वेषी और नीच स्वभाव वाली होती है |

 कन्या और वर का विवाह से पूर्व एकान्त में मेल नहीं होना चाहिए, क्योंकि युवावस्था में स्त्री-पुरुष का एकान्तवास दूषणकारक, होता है, परन्तु जब कन्या वा वर के विवाह का समय हो, अर्थात् जब एक वर्ष वा छह महीने ब्रह्मचर्याश्रम और विद्या पूरी होने में शेष रहें तब उन कन्याओं और कुमारों का प्रतिबिम्ब, जिसे फोटोग्राफ भी कहते हैं, कन्याओं की अध्यापिकाओं के पास कुमारों की और कुमारों के अध्यापकों के पास कन्याओं की भेज दें | जिस-जिसका रूप मिल जाए, उस-उसका इतिहास अर्थात् जन्म से लेकर उस दिन पर्यन्त जन्म-चरित्र की पुस्तक अध्यापक लोग मँगवाकर देखें | जब दोनों के गुण-कर्म-स्वभाव सदृश होँ तब जिस-जिसके साथ जिस-जिसका विवाह होना योग्य समझें उस-उस पुरुष और कन्या का प्रतिबिम्ब और इतिहास, कन्या और वर के हाथ में देवें और कहें कि इसमें जो तुम्हारा अभिप्राय हो उससे हमें अवगत करा देना | जब उन दोनों का विवाह करने का निश्चय हो जाए तब उन दोनों का समावर्तन एक ही समय में होवे | जो वे दोनों अध्यापकों के सामने विवाह करना चाहें तो वहाँ अन्यथा कन्या के माता-पिता के घर में विवाह होना योग्य है |

 'संस्कार विधि' के अनुसार सबके सामने पाणिग्रहण पूर्वक विवाह की विधि को पूर्ण कर एकान्त सेवन करें | गर्भ-स्थिति के पश्चात् एक वर्ष पर्यन्त स्त्री-पुरुष का समागम कभी न होना चाहिए | ऐसा करने से सन्तान उत्तम होते हैं अन्यथा वीर्य व्यर्थ जाता है, आयु कम होती है और अनेक प्रकार के रोग घेर लेते हैं | स्त्री इस समय भोजन, छादन इस प्रकार का करे कि गर्भ में बालक का शरीर अत्युत्तम रूप, लावण्य, पुष्टि, बल, पराक्रमयुक्त होकर दसवें मॉस में उत्पन्न हो |

गृहस्थ जीवन में स्त्री का महत्व पूर्ण स्थान

 वैदिक धर्म में स्त्री पैर कि जूती नहीं अपितु सिर की पगड़ी है | नारी के इस गौरव और महत्व को स्वीकार करते हुए मनु ने कहा- "जिस कुल में भार्या से पति और पति से भार्या=पत्नी प्रसन्न रहते हैं उसी कुल में सब सौभाग्य और ऐश्वर्य निवास करते हैं, जिस घर में कलह होता है वहाँ दौर्भाग्य और दारिद्र्य निवास करता है | जिस घर में स्त्रियों का आदर-सम्मान होता है वहाँ दिव्य गुण और दिव्य पुरुषों का निवास होता है | जिन घरों में स्त्रियों का सत्कार नहीं होता वहाँ सब क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं | जिस घर वा कुल में स्त्रियां शोकातुर होकर दुःख पाती हैं वह कुल शीघ्र नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है | जिस घर में स्त्रियां आनन्द और प्रसन्नता से भरी रहती हैं वह कुल निरन्तर बढ़ता रहता है | इसलिए ऐश्वर्य की कामना करने वाले पुरुषों को चाहिए कि सत्कार और उत्सव के अवसरों पर इनका भूषण, वस्त्र और भोजन आदि से नित्यप्रति सत्कार करें | दिन और रात में जब-जब प्रथम मिलें वा पृथक होँ तब-तब प्रीतिपूर्वक नमस्ते एक-दूसरे से करे |

स्त्री के कर्त्तव्य

 स्त्री को योग्य है कि सदा प्रसन्न रहे | गृह के सब कार्यों को चतुराई से करे | घर की शुद्धि और वस्तुओं को यथा योग्य स्थानों पर रखे तथा व्यय में अत्यन्त उदार न रहे |

स्त्री-पुरुषों के कर्तव्य

 सदा सत्य और प्रिय बोलें, | हितकारी वचन ही बोलें | बिना अपराध किसी के साथ वैर या विवाद न करें | हितकारक वचन चाहे सुननेवाले को बुरा लगे तब भी कह दे | किसी की निन्दा न करें | अपने अवकाश के क्षणों में बुद्धि और धन वृद्धि करने वाले वेद को पढ़ें और पढाया करें |

पञ्च महायज्ञ

 गृहस्थ ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ और भूतयज्ञ- इन पाँच यज्ञों को अवश्य किया करें |

 १. ब्रह्मयज्ञ- वेदादि शास्त्रों का पढ़ना-पढ़ाना, सन्ध्योपासना और योगाभ्यास का नाम ही ब्रह्मयज्ञ है | इसे ऋषि-यज्ञ भी कहते हैं, क्योंकि स्वाध्याय द्वारा ही ऋषियों का तर्पण होता है |

 २. देवयज्ञ- अग्निहोत्र, विद्वानों का संग, सेवा, पवित्रता, दिव्य गुणों का धारण, दात्रित्व, विद्या की उन्नति करना- देवयज्ञ है | होम के द्वारा अग्नि, वायु आदि की शुद्धि होती है |

 सन्ध्या और अग्निहोत्र दो ही समय करना, क्योंकि दिन और रात की दो ही सन्धियाँ होती हैं |

 ३.पितृयज्ञ- देव अर्थात् विद्वान्, ऋषि अर्थात् पढ़ने-पढ़ाने वाले और पितर अर्थात् माता-पिता आदि वृद्ध, ज्ञानी तथा परम योगी जनों की सेवा करना पितृयज्ञ है | इसके दो भेद हैं- एक श्राद्ध और दूसरा तर्पण | 'श्रत्' का अर्थ है सत्य | जिस क्रिया से सत्य का ग्रहण किया जाए, उसे श्रद्धा और जो कर्म श्रद्धा से किया जाए उसका नाम श्राद्ध है | जिस-जिस कर्म से माता-पिता आदि प्रसन्न होँ और प्रसन्न किये जाएँ उसका नाम तर्पण है, परन्तु यह जीवितों के लिए है मृतकों के लिए नहीं |

 ४. बलिवैश्वदेव अर्थात् भूतयज्ञ- इस वैश्वदेव के तीन भाग हैं- (क)- जब भोजन तैयार हो जाए तब उसमें से खट्टे और लवणान्न को छोड़कर घृत तथा मिष्टयुक्त अन्न लेकर, चूल्हे से अग्नि अलग धर उसपर मन्त्रों से आहुति और भाग करें |

 (ख)- तत्पश्चात् थाली में अथवा भूमि पर पत्ता रख कर पूर्व दिशा के क्रमानुसार मन्त्रपूर्वक भिन्न-भिन्न भाग रखना | इन भागों को कोई अतिथि हो तो उसे खिला दें अथवा अग्नि में छोड़ देवें |

 (ग)- तदन्तर लवणान्न अर्थात् दाल, भात, शाक, रोटी आदि लेकर कुत्ते, पापी, चांडाल, पापरोगी, कौवे और कृमि अर्थात् चींटी आदि के लिए भाग धरें |

 ५. अतिथि-सेवा अथवा नृयज्ञ- अतिथि उसको कहते हैं जिसके आने-जाने की कोई तिथि निश्चित न हो, अर्थात् अकस्मात् कोई धार्मिक, सत्योपदेशक, सबके उपकारार्थ सर्वत्र घूमनेवाला, परमयोगी, सन्यासी गृहस्थ के यहाँ आवे तो गृहस्थी जल, आसन, खान-पान आदि से उसकी सेवा-सुश्रुषा कर उसे प्रसन्न करें, पश्चात् सत्संग कर उससे ज्ञान और विज्ञान-सम्बन्धी उपदेश श्रवण करें, जिससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति हो | साथ ही अपना चाल-चलन उसके सदुपदेशानुसार रखे | समयानुसार राजा और गृहस्थ भी अतिथिवत् सत्कार करने योग्य हैं, परन्तु आज-कल के जो हठी, दुराग्रही, वेदविरोधी एवं पाखण्डी वैरागी आदि हैं ऐसों का सत्कार गृहस्थ वाणी-मात्र से भी न करे, क्योंकि ऐसों का सत्कार करने से ये वृद्धि को प्राप्त होकर संसार को अधर्मयुक्त करते हैं | ये आप तो अवन्नत्ति के कम करते ही हैं साथ ही सेवक को भी अविद्यारूपी महासागर में डुबा देते हैं |

पञ्चमहायज्ञों का फल

 ब्रह्मयज्ञ- के करने से विद्या, शिक्षा, धर्म, सभ्यता आदि शुभगुणों की वृद्धि होती है |

 देवयज्ञ- अग्निहोत्र से वायु, वृष्टि और जल की शुद्धि होकर वृष्टि द्वारा संसार को सुख प्राप्त होता है |

 पितृयज्ञ- का फल यह है कि गृहस्थी जब माता-पिता और ज्ञानी महात्माओं की सेवा करेगा तब उनकी कृपा से उसका ज्ञान बढ़ेगा | उससे गृहस्थी सत्यासत्य का निर्णय कर सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग से सुखी रहेगा | इसका दूसरा फल है कृतज्ञता- अर्थात् जैसी सेवा माता-पिता और आचार्य ने सन्तान और शिष्यों की की है उसका बदला देना उचित है |

 बलिवैश्यदेवयज्ञ- इस होम से पाकशालास्थ वायु शुद्ध होती है | बिना जाने अदृश्य जीवों की जो हत्या होती है उसका प्रतिकार होता है तथा कुत्ते आदि प्राणियों को अन्न मिलता है |

 अतिथियज्ञ- का फल यह है कि जब तक उतम अतिथि जगत् में नहीं होते तब तक उन्नति नहीं हो सकती | उनके सब देशों में घूमने और सत्योपदेश करने से पाखण्ड की वृद्धि नहीं होती | इनके द्वारा गृहस्थों को सहज ही सत्यज्ञान की प्राप्ति होती रहती है और मनुष्यमात्र में एक ही धर्म स्थिर रहता है | बिना अतिथियों के सन्देह की निवृति नहीं होती, सन्देह निवृति के बिना दृढ निश्चय नहीं होता, दृढ निश्चय के बिना सुख कहा ?

गृहस्थियों के कर्त्तव्य

 प्रातः जागरण- स्त्री-पुरुषों को योग्य है कि रात्रि के चौथे प्रहर अथवा चार घड़ी रात्रि से उठें, फिर आवश्यक कार्य करके धर्म और अर्थ का, शरीर के रोग और उनके कारणों का तथा परमात्मा का ध्यान करें |

 धर्माचरण- अधर्म का आचरण कभी न करें, क्योंकि किया हुआ अधर्म कभी निष्फल नहीं जाता | अधर्मात्मा पुरुष आरम्भ में फूलता-फलता है, परन्तु बाद में समूल नष्ट हो जाता है | स्त्री-पुरुष को चाहिए कि धीरे-धीरे धर्म का संचय करें, क्योंकि मरने के पश्चात् केवल धर्म ही सहायक होता है |

 धर्म का स्वरूप- ऋत्विक, पुरोहित, आचार्य, माता-पिता, भाई, बहन, पुत्र, पुत्री, सम्बन्धी और सेवकों से विवाद अर्थात् विरुद्ध लड़ाई बखेड़ा कभी न करें | सदा कार्यों को दृढ़ता से करनेवाला, कोमलस्वभाव, जितेन्द्रिय, हिंसक एवं क्रूर-आचरण वालों से दूर रहनेवाला और मन को जीतनेवाला बनें | वाणी से ही सब व्यवहा सिद्ध होते हैं, अतः जो मिथ्या भाषण करता है वह चोरी आदि सब पापों का भागी होता है, इसलिए मिथ्याभाषणादि अधर्म को छोड़ दें |

 आचार-महिमा- दुराचारी पुरुष संसार में निन्दा को प्राप्त होता है, वह दुःखों का ग्रास बनता है और उसका जीवन भी अल्प होता है इसके विपरीत आचार से आयु दीर्घ होती है, उत्तम प्रजा और अक्षय धन प्राप्त होता है तथा दुष्ट लक्षणों का नाश होता है |

 परस्पर व्यवहार- जो कार्य एक-दूसरे के अधीन हैं वे अधीनता से ही करने चाहिएँ | स्त्री-पुरुष का और पुरुष-स्त्री का परस्पर प्रियाचरण, अनुकूल रहना, विरोध न करना | पुरुष की आज्ञानुसार घर के काम स्त्री करे और बाहर के काम पुरुष के अधीन रहें | दुष्ट व्यसन में फँसने से दोनों एक दूसरे को रोकें | जब विवाह होवे तब यही निश्चय जानना कि स्त्री के साथ पुरुष और पुरुष के साथ स्त्री बिक चुकी, अब स्त्री वा पुरुष परस्पर प्रसन्नता के बिना कोई भी व्यवहार न करें |

पति-पत्नी वियुक्त न रहें

 स्त्री और पुरुष का कभी वियोग नहीं होना चाहिए, क्योंकि-

पानं दुर्जनसंसर्ग: पत्या च विरहोsटनम् |

 स्वप्नोsन्यगेहवासश्च नारी सन्दूषणानि षट् || -मनु० ९ | १३

 मद्य, भाँग आदि मादक द्रव्यों का सेवन, दुष्टपुरुषों का संग, पतिवियोग, अकेली जहाँ-तहाँ पाखण्डी आदि के दर्शन के मिस फिरती रहना, पराये घर में जाकर सोना अथवा रहना- ये छह दोष स्त्री को दूषित करनेवाले हैं और पुरुषों को भी | यदि पति दूर देश में यात्रार्थ जाए तो पत्नी को भी अपने साथ रखे, क्योंकि स्त्री-पुरुष का बहुत समय तक वियोग रहना ठीक नहीं |

पुनर्विवाह

 एक समय में अनेक विवाह होना उचित नहीं है, परन्तु समयान्तर में अनेक विवाह हो सकते हैं | जिस स्त्री वा पुरुष का पाणिग्रहणमात्र संस्कार हुआ हो और संयोग न हुआ हो, अर्थात् अक्षतवीर्य पुरुष अक्षतयोनि स्त्री हो, उनका अन्य स्त्री-पुरुष के साथ पुनर्विवाह होना चाहिए, किन्तु ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णों में क्षतयोनि स्त्री और क्षतवीर्य पुरुष का पुनर्विवाह न होना चाहिए | यदि सन्तान न हो तो कुल की परम्परा चलाने के लिए किसी अपने स्वजाति का लड़का गोद ले लें, उसी से कुल चलेगा |

 

 

विवाह की आवश्यकता

 'विवाह क्यों करें ? क्योंकि विवाह करने से स्त्री पुरुष को बन्धन में पड़कर दुःख भोगना पड़ता है, अतः जब तक जिसकी जिसके साथ प्रीति हो तब तक मिले रहें जब प्रीति छूट जाए तो अलग हो जाएँ |' ये विचार अत्यन्त भ्रामक हैं | यह पशु-पक्षियों का व्यवहार है मनुष्यों का नहीं | जो मनुष्यों में विवाह का नियम न रहे तो गृहस्थाश्रम के सब उत्तम व्यवहार नष्ट हो जाएँ, कोई किसी की सेवा न करे और महाव्यभिचार बढ़कर सब रोगी, निर्बल और अल्पायु होकर शीघ्र मर जाएँ | कोई किसी से भय वा लज्जा न करे | वृद्धावस्था में कोई किसी की सेवा न करे |

गृहस्थाश्रम के कुछ आवश्यक कर्तव्य

 अपने माता-पिता सास-श्वसुर की अत्यन्त सेवा-शुश्रुषा करें | मित्र और अड़ोसी-पड़ोसी, राजा, विद्वान्, वैद्य और सत्पुरुषों से प्रीति रखें | जो दुष्ट एवं अधर्मी हैं उनसे उपेक्षा अर्थात् द्रोह छोड़कर उनके सुधारने का यत्न किया करें | जहाँ तक बने वहाँ तक प्रेम से अपने सन्तानों को विद्वान् और सुशिक्षा करने-कराने में धनादि पदार्थों का व्यय करके उनको पूर्ण विद्वान् सुशिक्षायुक्त कर दें | धर्मयुक्त व्यवहार करके मोक्ष का साधन किया करें |

गृहस्थाश्रम का महत्त्व

 अपने-अपने स्थान पर सभी आश्रम बड़े एवं महत्वपूर्ण हैं, परन्तु-

यथा नदीनदा: सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम् |

 तथैवाश्रमीणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम् || -मनु० ३ | ९०

 जैसे नदी और बड़े-बड़े नद तब तक भ्रमते ही रहते हैं जब तक समुद्र को प्राप्त नहीं होते, वैसे गृहस्थ-आश्रम से ही सब आश्रम स्थित रहते हैं | बिना इस आश्रम के किसी आश्रम का कोई व्यवहार सिद्ध नहीं होता |

 ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासी- इन तीनों आश्रमों को दान और अन्नादि देके गृहस्थ ही धारण करता है, इसलिए गृहस्थाश्रम ही सब आश्रमों में ज्येष्ठ और श्रेष्ठ है | जिसे इहलौकिक सुख और पारलौकिक आनन्द की इच्छा हो उसे प्रयत्नपूर्वक गृहस्थाश्रम को धारण करना चाहिए | जो यह गृहस्थाश्रम न होता तो संतानोत्पत्ति के न होने से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम कहाँ से हो सकते थे ? जो कोई गृहस्थाश्रम की निन्दा करता है वही निन्दनीय है और जो प्रशंसा करता है वही प्रशंसनीय है, परन्तु गृहस्थाश्रम में सुख तभी होता है जब स्त्री-पुरुष दोनों परस्पर प्रसन्न,

विद्वान्, पुरुषार्थी और सब प्रकार के व्यवहारों के ज्ञाता होँ, अतः गृहस्थाश्रम के सुख का मुख्य कारण ब्रह्मचर्य और पूर्वोक्त स्वयंवर विवाह ही है | इति चतुर्थः समुल्लासः सम्पूर्ण: || ४ ||