Dasham Samullas

 

दशम-समुल्लासः

आचार, अनाचार भक्ष्य और अभक्ष्य

आचार और अनाचार की परिभाषा

धर्मयुक्त कामों का आचरण, सुशीलता, सत्पुरुषों का सङ्ग और सद्विद्या के ग्रहण में रुचि आदि आचार  और इनसे अनाचार कहाता है।

धर्म और आचार के विषय में वेद परम प्रमाण

आचार और धर्म समान अर्थक हैं मनुष्यों को सदा ध्यान रखना चाहिए कि जिस कर्म, धर्म या  आचार का सेवन राग-द्वेष रहित विद्वान् लोग करें, जिसको हृदय अर्थात् आत्मा से सत्य कर्त्तव्य जानें वही धर्म माननीय और करणीय है। सम्पूर्ण वेद, मनुस्मृति तथा ॠषिप्रणीत शास्त्र, सत्पुरुषों का आचार और अपने आत्मा के ज्ञान से अविरुद्ध प्रियाचरण- ये चार धर्म के लक्षण हैं, इन्हीं से धर्म लक्षित होता है, परन्तु जो धन के लोभ और काम-विषय-सेवन में फँसा हुआ नहीं, उसी को धर्म का ज्ञान होता है। धर्म को जानने की इच्छा करने वालों के लिए वेद ही परम प्रमाण हैं। जो वेदों को न मानकर उनकी निन्दा करता है, वह नास्तिक है।

केश=बाल

सब मनुष्यों को उचित है कि वेदोक्त पुण्यरूपकर्मों से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपने सन्तानों के गर्भाधान आदि संस्कार अवश्य करें। ब्राह्मण का सोलहवें, क्षत्रिय का बाईसवें और वैश्य का चौबीसवें वर्षमें केशान्तकर्म=क्षौर=मुण्डन हो जाना चाहिए, अर्थात् इस विधि के पश्चात् केवल शिखा को रखके अन्य डाढी-मूँछ और सिर के बाल सदा मुँडवाते रहना चाहिए, पुनः कभी न रखना। यदि शीतप्रधान देश हो तो कामाचार है चाहे जितने केश रखें और जो अति उष्ण देश हो तो शिखासहित सब छेदन करा देना चाहिए, क्योंकि सिर में बाल रखने से उष्णता अधिक होती है और उससे बुद्धि कम हो जाती है। डाढी-मुँछ रखने से भोजन-पान अच्छे प्रकार नहीं होता और उच्छिष्ट भी बालों में रह जाता है।

जितेन्द्रियता

मनुष्य का यही मुख्य आचार है कि जो इन्द्रियाँ चित्त को हरण करनेवाले विषयों में प्रवृत्त करती है उन्हे रोकने का प्रयत्न करे। जैसे सारथी घोडे को रोककर उन्हें शुद्ध मार्ग पर चलाता है वैसे इनको अपने वश में करके अधर्म मार्ग से हटा के धर्म मार्ग में सदा चलाया करे। इन्द्रियों की विषयासक्ति और अधर्म में चलाने से मनुष्य निश्चय ही दोष को प्राप्त होता है और जब इन्हें जीतकर धर्म में चलाता है तभी अभिष्ट सिद्धि को प्राप्त होता है। इसीलिए पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और ग्यारहवें मन को अपने वश में करके युक्त आहार-विहार और योगाभ्यास से शरीर की रक्षा करता हुआ सब अर्थों को सिद्ध करे। जितेन्द्रिय उसको कहते हैं जो स्तुति सुन के हर्ष और निन्दा सुन के शोक, अच्छा स्पर्श करके सुख और दुष्ट स्पर्श से दुःख, सुन्दर रूप देख के प्रसन्न और दुष्टरूप देख के अप्रसन्न उत्तम भोजन करके आनन्दित और निकृष्ट भोजा करके दुःखित, सुगन्ध में रुचि और दुर्गन्ध में अरुचि नहीं करता। जितेन्द्रियता ही सदाचार के वृत्त का केन्द्र है। इसके अभाव में सदाचार का प्रश्न ही नहीं उठता।

सत्य

सत्ये सर्वं प्रतिष्ठितम्- सत्य ही सबका आधार है, परन्तु इस सत्य को बडी सावधानी से बोलना चाहिए। अप्रिय सत्य कभी नहीं बोलना चाहिए। कभी बिना पूछे वा अन्याय से पूछनेवाले को कि जो कपट से पूछता हो, उत्तर न देवे। बुद्धिमान् को चाहिए कि उसके सामने जड के समान आचरण करे। हाँ जो निष्कपट और जिज्ञासु हों, उन्हें बिना पूछे भी उपदेश करें।

विद्या

जीवन में धन, बन्धु (कुटुम्ब, कुल) अवस्था, उत्तम कर्म और विद्या- ये पाँच मान्य के स्थान हैं। इनमें पिछला-पिछला अधिक माननीय है, अर्थात् धन से बन्धु, बन्धु से अवस्था आदि। इस प्रकार विद्या का स्थान सर्वोपरि है। अधिक वर्षों के बीतने, बालों के श्वेत होने, अधिक धन होने और बडा कुटुम्ब होने से कोई वृद्ध नहीं होता, किन्तु ॠषि-महात्माओं का यही निश्चय है कि जो विद्या-विज्ञान में अधिक होता है वही वृद्ध कहाता है। सिर के बाल सफेद होने से वृद्ध नहीं होता, किन्तु जो युवा पढा हुआ है उसी को विद्वान् लोग बडा जानते हैं।

अहिंसा तथा मधुर-भाषण

विद्या पढकर विद्वान् एवं धर्मात्मा होकर निर्वैरता से सब प्राणियों को कल्याण का उपदेश करे। उपदेश में वाणी मधुर और कोमल बोले। जो सत्योपदेश से धर्म की वृद्धि और अधर्म का नाश करते हैं, वे पुरुष धन्य हैं।

शौच-पवित्रता

नित्य स्नान करे तथा वस्त्र, अन्न, पान, स्थानa अदि सबको शुद्ध रखे, क्योंकि इनके शुद्ध होने से चित्त की शुद्धि और आरोग्यता प्राप्त होकर पुरुषार्थ बढता है। शौच उतना ही ठीक है जितने से मल, दुर्गन्ध दूर हो जाए।

शिष्टाचार

आचारः परमो धर्मः- सत्यभाषण आदि कर्मों का आचार करना ही वेद और स्मृति में कहा हुआ आचार है। सामाजिक मधुरता के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है। मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। अतिथिदेवो भव- इन उपनिषद् वाक्यों के अनुसार माता, पिता, आचार्य और अतिथि की सेवा करना देवपूजा कहाती है।

परोपकार

जिस-जिस कर्म से जगत् का उपकार हो वह-वह कर्म करना और हानिकारक कर्मों को छोड देना ही मनुष्य का मुख्य कर्त्तव्य-कर्म है।

सत्सङ्ग

कभी नास्तिक, लम्पट, विश्वाघाती, मिथ्यावादी, स्वार्थी, कपटी, छली आदि दुष्ट मनुष्यों का सङ्ग न करे। आप्त- जो सत्यवादी, धर्मात्मा और परोपकार-प्रियजन हैं, सदा उनका सङ्ग करने का ही नाम श्रेष्ठाचार है।

विदेश-यात्रा और सदाचार

पौराणिक लोगों ने यह माना है कि आर्यावर्त्त देशवासियों का आर्यावर्त्त देश से भिन्न-भिन्न देशों में जाने से आचार नष्ट हो जाता है- यह बात मिथ्या है, क्योंकि जो बाहर-भीतर की पवित्रता करनी तथा सत्यभाषणादि आचरण करना है वह जहाँ कहीं करेगा तो वह आचार और धर्म भ्रष्ट कभी नहीं होगा और जो आर्यावर्त्त में रहकर भी दुष्टाचार करेगा वही धर्म और आचार भ्रष्ट कहावेगा। देखो ! आर्यावर्त्त के हमारे प्राचीन पुरुष, देश-विदेश की यात्रा, विदेशियों से ज्ञान चर्चा, उनके साथ विवाह आदि सम्बन्ध किया करते थे। यथा-

1-  महाभारत शान्तिपर्व में लिखा है कि किसी समय व्यासजी अपने पुत्र शुक और शिष्यों सहित पाताल अर्थात् अमेरिका में निवास करते थे। एक बार जब शुक ने अपने पिताजी से प्रश्न किया कि आत्मविद्या इतनी ही होती है या अधिक? तब व्यास जी ने कहा- हे पुत्र ! तू मिथिला पुरी में जा और यही प्रश्न वहाँ के राजा जनक से पूछ, वह इसका यथायोग्य उत्तर देगा। पिता का वचन सुन शुकदेव जी यूरोप और चीन होते हुए मिथिलापुरी आए। यदि विदेश यात्रा में पाप होता तो व्यासजी अमेरिका की यात्रा कभी न करते।

2-  महाभारत में यह वर्णन है कि श्रीकृष्ण और अर्जुन अश्वतरी अर्थात् अग्नियान नौका में बैठकर अमेरिका गये थे और वहाँ से उद्दालक ॠषि को युधिष्ठिर के यज्ञ में लाए थे।

3-  महाभारत में यह भी लिखा है कि धृतराष्ट्र का विवाह गान्धार (जिसको आजकल कन्धार कहते हैं और जो अफ़गानिस्तान में है) की राजपुत्री से हुआ था।

4-  महाराज पाण्डु की स्त्री ‘माद्री’ ईरान के राजा की कन्या थी। देश-देशान्तर और द्वीप-द्वीपान्तर में न जाते होते तो ये सब बातें क्योंकर हो सकतीं?

5-  ‘मनुस्मृति’ में समुद्र में जानेवाली नौकाओं पर कर लेना लिखा है वह भी आर्यावर्त्त से द्वीपान्तरों में जाने की घोषणा करता है।

6-  जब महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया थातब उसमें सब भूगोल के राजाओं को निमन्त्रित करने केलिये भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव चारों दिशाओं में गये थे, यदि वे विदेश-यात्रा में दोष मानते तो कभी न जाते।

 पहले आर्यावर्त्तदेशीय लोग व्यापार, राजकार्य और भ्रमण केलिए सब भूगोल में घूमते थे। आजकल जो छूत-छात और धर्मभ्रष्ट होने की शङ्का है वह केवल मूर्खों के बहकाने और अज्ञानता के कारण है। जो मनुष्य देश-देशान्तर और द्वीप-द्वीपान्तर में आने-जाने में शङ्का नहीं करते वे देश-देशान्तर के अनेकविध मनुष्यों के समागम, रीति-रिवाज देखने अपना राज्य और व्यापार बढाने से निर्भय और शूरवीर होने लगते हैं तथा अच्छे व्यवहार को ग्रहण और बुरी बातों को छोडने में तत्पर होके बडे ऐश्वर्य को प्राप्त होते हैं। भला ! जो महाभ्रष्ट म्लेच्छकुलोत्पन्न वेश्यादि के समागम से आचार-भ्रष्ट एवं धर्महीन नहीं होते, वे देश-देशान्तर के उत्तम पुरुषों के साथ समागम में छूत और दोष मानते हैं। यह मूर्खता की बात नहीं तो और क्या है? हाँ, उनके मांस-भक्षण और मद्यपान आदि दोषों का ग्रहण नहीं करना चाहिए। उनसे व्यवहार और गुणग्रहण करने में कोई भी दोष नहीं है। यदि विदेशियों के स्पर्श और देखने में भी पाप मानेगें तो अवसर पडने पर उनसे युद्ध भी नहीं कर सकते, क्योंकि युद्ध में उनका दर्शन और स्पर्श तो होगा ही।

सज्जन लोगों को राग, द्वेश, अन्याय, मिथ्याभाषण आदि दोषों को छोड निर्वैर, प्रीति, परोपकार, सज्जनता आदि का धारण करना उत्तम आचार है। धर्म हमारे आत्मा और कर्त्तव्य के साथ है। जब हम अच्छे काम करते हैं तो हमें देश-देशान्तर और द्वीप-द्वीपान्तर जाने में कुछ भी दोष नहीं लग सकता, दोष तो पाप के काम करने में लगते हैं। हाँ इतना अवश्य चाहिए कि वेदोक्त धर्म का निश्चय और पाखण्ड मत का खण्डन करना अवश्य सीख लें जिससे कोई हमको झूठा निश्चय न करा सके। क्या बिना देश-देशान्तर और द्वीप-द्वीपान्तर में राज्य वा व्यापार किये स्वदेश की उन्नति कभी हो सकती है? जब स्वदेश में स्वदेशी लोग व्यापार करते और परदेशी स्वदेश में आकर व्यापार वा राज्य करें तो बिना दारिद्र्य और दुःख के कुछ नहीं हो सकता।

चौका

विदेश यात्रा के समान ही भोजन खाने की बात है। यदि राजपुरुष युद्ध के समय भी चौका लगाकर रसोई बनाकर खाएँगे तो निश्चय ही पराजित होंगे। क्षत्रिय लोगों केलिए तो एक हाथ से रोटी खाते व जल पीते जाना और दूसरे हाथ से शत्रुओं को, घोडे आदि पर चढ या पैदल होके, मारते जाना, अपना विजय करना ही आचार और पराजित होना अनाचार है। इसी मूढता से ये लोग चौका लगाते-लगाते, विरिध करते-कराते सब स्वातन्त्र्य, आनन्द, धन, राज्य, विद्या और पुरुषार्थ पर चौका लगाकर हाथ-पर-हाथ धरे बैठे हैं और इच्छा करते हैं कि कुछ पदार्थ मिले तो पकाकर खावें। यह तो ठीक है कि जहाँ भोजन करें उस स्थान को धोने, लेपन करने, झाडू लगाने आदि से पवित्र रखा जाए, मुसलमान वा ईसाईयों के समान भ्रष्ट नहीं।

सखरी-निखरी

पाखण्डी लोग जल में पकाई वस्तु को सखरी [कच्चा भोजन] और घी, दूध आदि में पकाई वस्तु को निखरी अर्थात् चौखी [पक्का भोजन] कहते हैं। भोजन के सम्बन्ध में इस प्रकार का भेद पाखण्ड ही है। घी और दूध में पका भोजन स्वादु तथा पौष्टिक होता है और उदर में चिकना पदार्थ अधिक पहुँचता है, इसलिए भोजन भट्टों ने इसप्रकार के कच्चे-पक्के का प्रपञ्च रचा है अन्यथा अग्नि वा काल से पका हुआ पदार्थ पक्का और न पका हुआ कच्चा है।

पाककार्य शूद्र करें

अपने ही हाथ का भोजन खाना भी एक भ्रम है। आर्य लोगों को चाहिए कि शूद्र के हाथ का बनाया भोजन खाया करें। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य-वर्णस्थ स्त्री-पुरुषों को चाहिए कि वे अपने समय को विद्या पढानें, राज्यपालन, पशुपालन, खेती और व्यापार के कार्यों में लगाएँ और शूद्र इनके घर में रोटी पकाएँ। इस विषय में आपस्तम्ब धर्मसूत्र में लिखा है- आर्याधिष्ठाता वा शुद्राः संस्कर्त्तारः स्युः, अर्थात् आर्यों के घर में शूद्र अर्थात् मूर्ख स्त्री-पुरुष पाकादि सेवा करें, परन्तु वे शरीर एवं वस्त्रादि से पवित्र रहें। आठवें दिन उनका नख-छेदन और क्षौर कर्म करा देना चाहिए। वे नित्य स्नान करके भोजन बनाया करें। जो स्वच्छ शूद्र के हाथ का भोजन खाने में पाप समझते हैं उन्हें जानना चाहिए कि जिसने गुड, चीनी, घी, दूध खाये उन्होने जाने जगत् भर के हाथ का बनाया और उच्छिष्ट खा लिया। हाँ, मुसलमान, ईसाई आदि मद्य-मांसहारियों के हाथके खाने में आर्यों को भी मद्य-मांसादि खाना-पीना अपराध पीछे लग पडता है, परन्तु आपस में आर्यों का एक भोजन होने में कोई दोष नहीं दीखता। जब तक एकमत, एक हानि-लाभ, एक सुख-दुःख परस्पर न मानें तब तक उन्नति होना बहुत कठिन है। केवल खाना-पीना एक होने से सुधार नहीं हो सकता। जब तक बुरी बातें नहीं छोडते और अच्छी बातें नहीं करतें तब तक उन्नति के बदले अवनति होती है।   

विदेशियों के आर्यावर्त्त में राज्य होने के कारण- आपस की फूट, मतभेद, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, विद्या न पढना-पढाना वा बाल्यावस्था में अस्वयंवर विवाह, विषयासक्ति, मिथ्याभाषणादि-कुलक्षण, वेदविद्या का अप्रचार आदि कुकर्म हैं। जब आपस में भाई-भाई लडते हैं तभी तीसरा विदेशी आकर पञ्च बन बैठता है। महाभारत युद्धा में सभी सवारियों पर खाते-पीते थे। आपस की फूट से कौरव, पाण्डव और यादवों का सत्यानाश हो गया सो तो हो गया, परन्तु अब तक भी वही रोग पीछे लगा है। न जाने ये भयङ्कर राक्षस कभी छूटेगा वा आर्यों को सब सुखों से छुडाकर दुःखसागर में डुबा मारेगा? उसी दुर्योधन, गोत्रहत्यारे, स्वदेश विनाशक, नीच के दुष्ट मार्ग में आर्य लोग अब तक भी चलकर दुःख बढा रहे हैं। परमेश्वर कृपा करे कि यह राजरोग हम आर्यों में से नष्ट हो जाए।

भक्ष्य-अभक्ष्य

भक्ष्य–अभक्ष्य दो प्रकार का होता है- एक धर्मशास्त्रोक्त, दूसरा वैद्यकशास्त्रोक्त, धर्म शास्त्र में कहा है कि द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को मलिन, विष्ठा, मूत्रादि के संसर्ग से उत्पन्न हुए शाक, फल, मूल आदि नहीं खाने चाहिएँ, इसी प्रकार मद्य, मांस, गाँजा, भाङ्ग, अफीम आदि बुद्धि का नाश करनेवाले पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। जितने अन्न सडे, बिगडे, दुर्गन्धादि से दूषित, अच्छे प्रकार न बने हुए हों उन्हें और मद्य-मांसाहारियों के हाथ का न खावें।

उपकारी पशुओं की हिंसा का निषेध

एक गाय की एक पीढी में चार लाख पचहत्तर सहस्त्र छह सौ मनुष्यों को सुख पहुँचता है। ऐसे पशुओं को न मारें, न मारने दें। इन महोपकारक पशुओं को मारनेवालों को सब मनुष्यों की हत्या करनेवाला जानना चाहिए। देखो ! जब आर्यों का राज्य था तब ये महोपकारक गाय आदि पशु नहीं मारे जाते थे, तभी आर्यावर्त्त वा अन्य भूगोलस्थ देशों में बडे आनन्द में मनुष्यादि प्राणी वर्त्तते थे, क्योंकि गाय-बैलादि पशुओं की बहुताई होने से दूध, घी, अन्न, रस पुष्प, फलादि प्राप्त होते थे।

मांस

राजपुरुषों का कर्त्तव्य है कि जो हानिकारक पशु वा मनुष्य हों उनको दण्ड देवें और प्राण से भी वियुक्त कर दें। इन मृत्त व्याघ्र, मृग आदि के मांस को चाहे कुत्ते आदि मांसाहारियों को खिला देवें अथवा कोई मांसाहारी खावे तो भी संसार की कुछ हानि नहीं होती, किन्तु उस मनुष्य का स्वभाव मांसाहारी हिंसक हो सकता है, अतः उसे जलाना या फेंकना ही उचित है।

भक्ष्याभक्ष्य के सम्बन्ध में कुछ निर्देश

1-  जितना हिंसा, चोरी, विश्वासघात और छल-कपट आदि से पदार्थों को प्राप्त होकर भोग करना है वह अभक्ष्य और अहिंसा, धर्मादि कर्मों से प्राप्त करके भोजनादि करना भक्ष्य है।

2-  जिन पदार्थों से स्वास्थ्य-प्राप्ति, रोगनाश, बुद्धि, बल-पराक्रमवृद्धि और आयु वृद्धि होवे उन चावल, गोधूम=गेहूँ, फल, मूल, कन्द, दूध, घी, मिष्ट आदि पदार्थों का सेवन यथायोग्य पाक, मेल करके यथोचित समय पर मिताहार भोजन करना भक्ष्य कहाता है।

3-  जितने पदार्थ अपनी प्रकृति से विरुद्ध और विकार करने वाले हैं वे सब अभक्ष्य और जो-जो जिसके लिए विहित हैं उन-उन पदार्थों का ग्रहण करना भक्ष्य है।

एक पात्र में एक-साथ भोजन में दोष

एक ही थाली में एक-साथ भोजन करना ठीक नहीं क्योंकि एक के साथ दूसरे की प्रकृति और स्वभाव नहीं मिलते। कुष्ठी आदि के साथ भोजन करने से अच्छे मनुष्य का रुधिर भी बिगड जाता है। इसलिए- ‘नोच्छिष्टं कस्यचिद् दद्यात्’ न किसी को अपना जूठा पदार्थ देवे और न किसी का जूठा खाए। पति-पत्नी भी एक-दूसरे का जूठा न खाएँ। गुरु आदि का जूठा भी न खाए। गुरोरुच्छिष्टभोजनम्- का भाव केवल इतना ही है कि पहले गुरु को भोजन कराके फिर शिष्य को भोजन करना चाहिए।

शहद और दूध

शहद और दूध को उच्छिष्ट कहना ठीक नहीं। मधुमक्षिका के मुख में उच्छिष्ट करने वाला स्राव नहीं होता। मधु बहुत-सी औषधियों का सार होता है, अतः वह ग्राह्य है। बछडा अपनी माँ के बाहर का दूध पीता है, भीतर के दूध को नहीं पी सकता, अतः वह उच्छिष्ट नहीं। हाँ, बछडे के पीने के पश्चात् थनों को धोकर शुद्ध पात्र में धोना चाहिए।

भोजन का स्थान

चौके में बैठकर ही भोजन करना आवश्यक नहीं है जहाँ पर अच्छा, रमणीय, सुन्दर स्थान दीखे वहाँ भोजन करना चाहिए।

अन्तिम चार समुल्लास

यहाँ आचार-अनाचार, भक्ष्य-अभक्ष्य का विषय समाप्त होता है। आगे चार समुल्लासों में मुख्यतया खण्डन का विषय है। इन समुल्लासों में क्रमशः आर्यावर्त्तीय, जैन-बौद्ध, ईसाई और मुस्लिम मत-मतान्तरों का खण्डन-मण्डन है। अन्त में स्वमन्तव्यामन्तव्य हैं। जो इन चौदह समुल्लासों को पक्षपात छोड, न्यायदृष्टि से देखेगा उसके आत्मा में सत्य अर्थ का प्रकाश होकर आनन्द होगा और जो हठ, दुराग्रह और ईर्ष्या से देखे-सुनेगा उसको इस ग्रन्थ का अभिप्राय यथार्थ विदित होना बहुत कठिन है। विद्वानों का यही काम है कि सत्यासत्य का निर्णय करक्र सत्य का ग्रहण, असत्य का त्याग करके परम आनन्दित होते हैं। गुणग्राहक पुरुष ही विद्वान् होकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप फलों को प्राप्त होकर प्रसन्न रहते हैं।

इति दशमः समुल्लासः सम्पूर्णः ॥10॥