Shashtha Samullas
षष्ठ-समुल्लासः
राजा-प्रजाधर्मविषयः
राजा का कर्त्तव्य
क्षत्रिय को योग्य है कि सुशिक्षित होकर न्यायपूर्वक प्रजा की रक्षा और राज्य का पालन करे |
राष्ट्र की तीन सभाएँ
राज्य के सञ्चालन और प्रजा की रक्षा के लिए यह आवश्यक है कि राजा और प्रजा के पुरुष मिल कर, विद्यार्यसभा, धमार्यसभा, और राजार्यसभा- इन तीन सभाओं का निर्माण करें |
राजा स्वच्छन्दन न हो
एक व्यक्ति को स्वतन्त्र राज्य का अधिकार नहीं देना चाहिए, क्योंकि स्वच्छन्द राजा प्रजा का नाशक होता है | स्वतन्त्र राजा प्रजा को अपने से अधिक नहीं होने देता, श्रीमानों को लूट-खसोटकर और अन्याय से दण्ड देके चौपट कर देता है |
राजा का चुनाव
वैदिक राजनीति में राष्ट्र के सब विद्वान् मिलकर राजा का निर्वाचन करते हैं | अयोग्य होने पर प्रजा उसे हटा भी सकती है | जिस पुरुष को राजा चुना जाए वह प्रजाओं में सर्वश्रेष्ठ, शत्रुओं को जितनेवाला, प्रशंसनीय गुण-कर्म-स्वभाव से युक्त, सत्करणीय एवं सुशिक्षित हो | वह राजा अथवा सभापति ‘इन्द्र’ अर्थात् राष्ट्र को शीघ्रता से ऐश्वर्य से युक्त करने वाला, ‘वायु’ के समान सबको प्राणवत् प्रिय, ‘यम’ पक्षपातरहित न्यायाधीश के समान वर्त्तनेवाला, ‘सूर्य’ के सामान न्याय, धर्म, विद्या का प्रकाशक और अविद्या, अन्याय का निरोधक, ‘अग्नि’ के समान दुष्टों को भस्म करनेवाला, ‘वरुण’ के समान दुष्टों को अनेक प्रकार से बाँधनेवाला, ‘चन्द्रमा’ के तुल्य श्रेष्ठ पुरुषों को आनन्ददाता और ‘वित्तेश’ के समान कोशों को पूर्ण करनेवाला हो |
इस राजा को राज्यव्यवस्था के निमित्त राज्यसभाओं के अधीन रहना चाहिए | यह राजा राज्यकार्य में स्वतन्त्र न होता हुआ सभाओं की सम्मति से, अर्थात् सभा के सभापति के रूप में कार्य किया करे |
सभासदों और सभापति के गुण
महाविद्वानों को विद्यासभाधिकारी, धार्मिक विद्वानों को धर्मसभाधिकारी तथा प्रशंसनीय धार्मिक पुरुषों को राज्यसभा के सभासद् और जो उन सब में सर्वोत्तम गुण-कर्म-स्वभावयुक्त महापुरुष हो उसको राजसभा का पति मान के सब प्रकार से उन्नति करें | राजा और राजसभा के सभासद् वे ही हो सकते हैं जो चारों वेदों की विद्याओं, सनातन दण्डनीति, न्यायविद्या, वार्ता [कृषि,पशु-पालन और व्यापार] और ब्रह्मविद्या को अच्छी प्रकार जानते होँ | सब सभासद् और सभापति इन्द्रियों को जीतकर सदा धर्म में वर्तें और अधर्म से हटे रहें | इसके लिए योगाभ्यास भी करते रहें, क्योंकि अपनी इन्द्रियों [कान, नाक, जिह्वा आदि] को जीते बिना बाहर की प्रजा को वश में रखना असम्भव है |
सभा के सभासदों की संख्या
न्यून-से-न्यून दस विद्वानों अथवा बहुत न्यून होँ तो तीन विद्वानों की सभा जैसी व्यवस्था करे उस व्यवस्था का उल्लंघन कोई भी न करे | दस विद्वानों की सभा [दशावरा परिषद् ] में निम्न दस विद्वान् होने चाहिएँ –ऋग्युजः, साम और अथर्व के ज्ञाता चार विद्वान्, न्यायशास्त्र का ज्ञाता, निरुक्त्त का ज्ञाता, धर्मशास्त्र का वेत्ता तथा ब्रह्मचारियों, गृहस्थियों और वानप्रस्थियों का एक-एक प्रतिनिधि | तीन विद्वानों की सभा [त्र्यवरा परिषद् ] में ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के ज्ञाता तीन विद्वान् होने चाहिए |
राष्ट्र के नियमों का निर्माण
राष्ट्र के नियमों का निर्माण बहुसम्मति से न होकर विद्वानों की सम्मति से होना चाहिए | महर्षि मनु कहते हैं - एकोsपि वेदविद्धर्मम् यं व्यवस्येद् द्विजोत्तमः |
स विज्ञेयो परो धर्मो नाज्ञानामुदितोsयुतै: || -मनु० १२ | ११३
सब वेदों को जाननेवाला, द्विजों में उत्तम, अकेला संन्यासी जिस धर्म की व्यवस्था करे, वही श्रेष्ठ धर्म है, उसी को मानना चाहिए और अज्ञानी सहस्त्रों, लाखों तथा करोड़ों भी मिलकर जो व्यवस्था करें उसे कभी न मानना चाहिए |
मुर्ख जिस धर्म की व्यवस्था करें उसे कभी न मानना चाहिए, क्योंकि मूर्खों के अनुसार चलने से मनुष्य के पीछे सैकड़ों पाप लग जाते हैं | विद्यार्यसभा आदि तीनों सभाओं में भी मूर्खों को कभी भर्ती न करें, अपितु सदा विद्वान् और धार्मिक पुरुषों की स्थापना करें |
उपर्युक्त तीनों सभाओं की सम्मति से राजनीति के उत्तम-उत्तम नियम बनाया करें और इन नियमों के अधीन सब लोग वर्ता करें | सबके हितकारी कामों में सभासद् अपनी-अपनी सम्मति दिया करें | सर्वहित करने में सब सभासद् परतन्त्र और निज धर्म युक्त कार्यों में सब स्वतन्त्र रहें |
राजा, राजसभाओं तथा प्रजा का परस्पर सम्बन्ध
किसी एक व्यक्ति को राज्य का स्वतन्त्र अधिकार नहीं देना चाहिए, किन्तु राजा [सभापति] के अधीन सभा और सभा के अधीन राजा, इसी प्रकार राजा और सभा प्रजा के अधीन तथा प्रजा सभा के अधीन रहे | यदि राजा और राजवर्ग पर प्रजा का अंकुश न रहे, वे स्वाधीन और स्वतन्त्र रहें तो प्रजा का नाश कर देते हैं |
राजा का व्यसन-शून्य जीवन
प्रजा राजा का ही अनुकरण करती है, अतः राजा का जीवन व्यसनशून्य और आदर्श होना चाहिए | राजा को दृढोत्साही होकर काम और क्रोध से उत्पन्न होनेवाले व्यसनों को छोड़ देना चाहिए | काम से उत्पन्न होनेवाले व्यसन ये हैं –मृगया=शिकार करना, अक्ष=जुआ खेलना, दिन में सोना, काम-कथा अथवा दूसरों की निन्दा करना, स्त्रियों का अतिसंग, मद्य आदि मादक द्रव्यों का सेवन, गाना, बजाना, नाचना और व्यर्थ इधर-उधर घुमते रहना | क्रोध से उत्पन्न होने वाले व्यसन ये हैं –चुगली करना, बिना विचारे बलात्कार से किसी की स्त्री से बुरा काम करना, द्रोह=वैर रखना, ईर्ष्या=दूसरों की उन्नति देखकर जलना, असूया=गुणों में दोष और दोषों में गुण आरोपित करना, अधर्म युक्त कार्यों में धन व्यय करना, बिना अपराध कठोर वचन कहना अथवा कठोर दण्ड देना | इन दोनों प्रकार के व्यसनों का मूल लोभ है, अतः लोभ का भी परित्याग कर देना चाहिए |
मन्त्रिमण्डल तथा राजपुरुष
विशेष सहाय के बिना सरल कार्य भी अत्यन्त कठिन हो जाते हैं फिर महान् राजकार्य एक व्यक्ति के द्वारा कैसे सम्भव हो सकता है? अतः एक को राज्यशक्ति देना और एक की बुद्धि पर सारे राज्यकार्य को छोड देना बहुत बुरा काम है। राज्य के सुसञ्चालनार्थ राजा को चाहिए कि स्वदेश में उत्पन्न, वेदादि शास्त्रों को जानने-वाले, शूरवीर, जिनका लक्ष्य अर्थात् विचार निष्फल न हो, ऐसे कुलीन, सुपरीक्षित, उत्तम, धार्मिक और चतुर सात वा आठ मन्त्रियों को नियुक्त करे। राजा स्वयं उस मन्त्रिमण्डल का सभापति होकर राजकार्यों में कुशल मन्त्रियों के साथ निम्नलिखित छह गुणों का विचार नित्यप्रति किया करे-
1- सन्धि- किसी राष्ट्र से मित्रता करना,
2- विग्रह- किसी राष्ट्र से विरोध करना,
3- स्थिति- समय को देखकर चुपचाप बैठे रहना अथवा अपने राज्य की रक्षा करके बैठे रहना,
4- समुदय- जब अपने राष्ट्र का उदय अर्थात् वृद्धि देखे तब दुष्ट शत्रु पर चढाई करना,
5- गुप्ति- राजसेना, कोश आदि की रक्षा करना और
6- लब्धप्रशमन- जिन-जिन देशों पर विजय प्राप्त हो उनमें शान्ति-स्थापन और उन्हें उपद्रव रहित करना।
उपर्युक्त मन्त्रियों के अतिरिक्त अन्य भी पवित्रात्मा, बुद्धिमान्, निश्चित बुद्धिवाले, पदार्थों के संग्रह में अति चतुर एवं सुपरीक्षित मन्त्रियों को नियुक्त करे। इनकी संख्या कार्य के विस्तार पर निर्भर करती है। जितने मनुष्यों से कार्य सिद्ध हो सके, उतने आलस्य रहित, बलवान् वा चतुर पुरुषों को अधिकारी नियुक्त करे।
दूत
प्रशंसित कुल में उत्पन्न, चतुर, पवित्र, हाव-भाव और चेष्टा से हृदयगत विचारों तथा भविष्य में होनेवाली बातों को जाननेवाला, सब शास्त्रों में विशारद दूत को नियुक्त करे। राजकार्य में अत्यन्त उत्साही, निष्कपटी, पवित्रात्मा, बहुत समय की बात को भी न भूलनेवाला, देश और काल अनुसार कार्य कानेवाला, सुन्दररूपयुक्त, निर्भय और सुवक्ता- ऐसा व्यक्ति ही दूत होने में प्रशस्त होता है। राजदूत में फूट में मेल कराने तथा मिले हुए दुष्टों को तोड-फोड देने का सामर्थ्य भी होना चाहिए।
कार्य विभाग
अमात्य को दण्डाधिकार, दण्ड में विनय-क्रिया अर्थात् किसी के प्रति अन्यायरूप दण्ड न होने पाये, राजा के अधीन कोश और दण्डकार्य तथा सभा के अधीन सब कार्य दूत के अधीन सन्धि=मेल और विग्रह=विरोध करने का अधिकार देना चाहिए।
पुरोहित
पुरोहित और ॠत्विज का स्वीकार इसलिए करे कि वे अग्निहोत्र और पक्षेष्टि आदि राजघर के सब कर्म किया करें और आप सदा राजकार्य में तत्पर रहे, अर्थात् यही राजा का सन्ध्योपासनादि कर्म है जो रात-दिन राजकार्य में प्रवृत्त रहना और कोई राजकाम बिगडने न देना।
कर
राजा वार्षिक कर आप्त पुरुषों के द्वारा ग्रहण किया करे। जिसप्रकार राजा और राजपुरुष और प्रजाजन सुखरूप फल से युक्त हों, वैसा विचार कर राजा तथा राज्यसभा राज्य में ‘कर’ स्थापन करे। जैसे जौंक, बछडा और भ्रमर थोडे-थोडे भोग्य पदार्थ ग्रहण करते हैं वैसे ही राजा प्रजा से थोडा-थोडा कर लेवे। व्यापार करनेवाले वा शिल्पी सुवर्ण वा चाँदी का जितना लाभ हो उसमें से पचासवाँ भाग, चावला आदि अन्नों में से छठा, आठवाँ वा बारहवाँ भाग लिया करे और जो धन लेवे तो भी उस प्रकार से लेवे कि जिससे किसान आदि खाने-पीने और धन से रहित होकर दुःख न पाएँ। अतिलोभ से अपने और दूसरों के सुख के मूल को नष्ट न करे। राजा ‘कर’ के उतने ही अंश का भोग करे जितना सभा उसके लिए नियत करे।
शस्त्र, सेना और दुर्ग=किला
राष्ट्र में आग्नेय आदि अस्त्र, शतघ्नी अर्थात् तोप और भुशुण्डी अर्थात् बन्दूक, धनुष-बाण एवं तलवार आदि शस्त्र शत्रुओं को पराजित करने और उनके आक्रमण को विफल करने के लिए होने चाहिएँ। राष्ट्र की सेना प्रशंसनीय हो जिससे सदा अपना विजय हो। सब सेना और सेनापतियों के ऊपर मुख्य सेनापति को नियुक्त करना चाहिए।
स्थल-युद्ध के लिए रथों, अश्वों, हाथियों, पदातियों शस्त्रास्त्रों का, जल-युद्ध के लिए नौकाओं और जहाजों का तथा आकाश-युद्ध के लिए विमानों का प्रबन्ध राजा को करना चाहिए। राजा सब राजपुरुषों को युद्ध विद्या सीखाने का प्रबन्ध करे। प्रतिदिन प्रातःकाल राजा सेनाध्यक्षों के साथ मिला करे और उन्हें हर्षित किया करे। सेना की कवायद और हाथी, घोडों तथा शस्त्रास्त्रों का सदा ध्यान रखा करे।
राजा को चाहिए कि राष्ट्र में दुर्गों का निर्माण भी कराए, क्यों कि दुर्ग में स्थित अस्त्र-शस्त्रयुक्त एक वीरपुरुष सौ के साथ और सौ पुरुष दस सहस्त्र के साथ युद्ध कर सकते हैं। ये दुर्ग शस्त्रास्त्र, धन-धान्य, वाहन, कारीगर, अन्न, चारा, घास तथा जलादि से परिपूर्ण होने चाहिएँ।
युद्ध
राष्ट्र रक्षा के लिए कभी-कभी युद्ध भी आवश्यक हो जाता है। जब कभी कोई छोटा या बडा शत्रु राजा को युद्ध के लिए आहूत करे तो क्षत्रियों के धर्म का स्मरण करके युद्ध में प्रवृत हों और अत्यन्त चतुराई से युद्ध करे जिससे अपना विजय हो। संग्राम में एक-दूसरे के मारने की इच्छा करते हुए जो राजा लोग अपने सामर्थ्य के अनुसार पीठ न दिखा युद्ध करते हैं, वे सुख को प्राप्त होते हैं, अतः युद्ध से कभी विमुख नहीं होना चाहिए। हाँ कभी-कभी शत्रु को जीतने के लिए उसके सामने से छिप जाना उचित है, क्योंकि जिस प्रकार से अपना विजय हो वैसा ही करे। जैसे सिंह क्रोध के कारण सामने आकर शस्त्राग्नि में भस्म हो जाता है, वैसे ही मूर्खता से नष्ट-भ्रष्ट न हो जाएँ।
युद्ध में शस्त्रपात के अयोग्य
युद्ध में दर्शनार्थ इधर-उधर खडे, नपुंसक, हाथ जोडे हुए, जिसके सिर के बाल खुले हों और “मैं तेरी शरण में हूँ”-ऐसा कहनेवाले पर शस्त्र-प्रहार न करे। सोये हुए, मूर्छित, नग्न, हथियार-रहित, अत्यन्त घायल, डरे हुए और युद्ध से पीठ दिखाकर भागते हुए पुरुष को योद्धा लोग सत्पुरुषों के धर्म का स्मरण करते हुए कभी न मारें।
युद्ध में पकडे हुए शत्रुओं के साथ व्यवहार
युद्ध में हारे हुए शत्रुओं को पकड ले। उनमें जो अच्छे हों उन्हें बन्दी गृह में रख दे। उन्हें भोजन-वस्त्र आदि यथावत् देवे। जो घायल हों उनकी चिकित्सा आदि विधि पूर्वक करे। उन्हें न चिडाए, न दुःख दे। जो उनके योग्य काम हो वह उनसे कराए। इस बातपर विशेष ध्यान रखे कि स्त्री, बालक, वृद्ध, आहत तथा शोकयुक्त पुरुषों पर शस्त्र कभी न चलाए। उनकी सन्तान को अपनी सन्तानवत् पाले और स्त्रियों को भी पाले। उनकी स्त्रियों को अपनी बहिन और कन्या के समान समझे। जब राज्य अच्छी प्रकार जम जाए तब जिससे पुनः युद्ध करने की आशङ्का न रहे उन्हें सत्कारपूर्वक छोडकर उनके घर वा देश भेज देवे और जिनसे भविष्य में विघ्न होने की आशङ्का हो उन्हें सदा कारागार में रखे।
पराजित राजा के साथ व्यवहार
जो धार्मिक राजा हो उससे विरोध कभी न करे अपितु उससे सदा मेल रखे। दुष्ट राजा चाहे महाबलवान् भी क्यों न हो उसे जीतने के लिए सब प्रकार से प्रयत्न किया करे। शत्रु पर विजय पाकर उससे प्रतिज्ञा लिखवा लेवे। यदि उचित समझे तो उसी के वंशस्थ किसी धार्मिक पुरुष को राजा कर दे और उससे लिखवा ले कि तुम्हें हमारी आज्ञा के अनुकूल, अर्थात् जैसी धर्मयुक्त राजनीति है उसके अनुसार चलकर न्याय से प्रजा का पालन करना होगा तथा उसके पास ऐसे पुरुष रखे कि जिससे पुनः उपद्रव न हो।
हारे युए राजा को बन्दी-गृह में रखे तो भी उसका सत्कार यथायोग्य करे जिससे वह हारने के शोक से रहित होकर आनन्द में रहे। उसे कभी चिडाए नहीं, उसके साथ हँसी-ठठ्ठा भी न करे।“हमने तुम्हें पराजित किया है”-ऐसा भी न कहे किन्तु “आप हमारे भाई हैं”-इत्यादि कहकर उसका मान और प्रतिष्ठा सदा किया करे।
युद्ध में छल-छिद्र का स्थान
युद्ध में छ्ल-छिद्र भी आवश्यक है। महर्षि मनु लिखते हैं –जैसे बगुला ध्यान अवस्थित होकर मछली के पकडने को ताकता है वैसे ही राजा अर्थ-संग्रह का विचार किया करे। द्रव्यादि पदार्थ और बल की वृद्धि कर शत्रु को जीतने केलिए सिंह के समान पराक्रम करे, चीते के समान छिपकर शत्रुओं को पकडे तथा समीप में आये बलवान् शत्रुओं से खरगोश के समान दूर भाग जाए और पश्चात् उनको छल से पकडे।
सैनिकों को प्रसन्न रखना
राजा सेनास्थ योद्धाओं को उस धन में से जो कि सबने मिलकर जीता हो सोलहवाँ भाग देवे और जो कोई युद्ध में मर गया हो उसकी स्त्री और सन्तान को वह भाग दे दे तथा मरे हुए सैनिक की स्त्री और असमर्थ लडकों का यथावत् पालन करे। जब उसके लडके समर्थ हो जाएँ तब उन्हें यथायोग्य अधिकार देवे। जो कोई अपने राज्य की वृद्धि, प्रतिष्ठा, विजय और आनन्द चाहता हो, वह इस मर्यादा का उल्लङ्घन कभी न करे।
राजा की दिनचर्या
राजा को योग्य है कि रात्रि के पिछले प्रहर में उठकर शौच, प्रभु-चिन्तन, अग्निहोत्र और धार्मिक विद्वानों का सत्कार कर सभा में प्रवेश करे। वहाँ ठहर कर जो प्रजाजन उपस्थित हों उन्हें मान्य दे और उन्हें विदाकर प्रमुख मन्त्रियों के साथ एकान्त में ‘सन्धि-विग्रह’ आदि की मन्त्रणा करे। मन्त्र को यथासम्भव गुप्त रखे। मन्त्रणा की समाप्ति पर राजा व्यायाम व स्नान करके मध्याह्न में भोजन के लिए अन्तःपुर में प्रविष्ट हो।
न्याय
मुख्य न्यायाधीश सब विद्याओं में पूर्ण होना चाहिए। प्रजावर्ग में अठारह बातों में विवाद उठ खडा होता है यथा- ॠण-विषयक विवाद, धरोहर का न देना, दूसरे के पदार्थ को बेच देना, मिल-मिलाकर किसी पर अत्याचार करना, लिए हुए पदार्थ को न देना, वेतन सम्बन्धी विवाद, प्रतिज्ञा के विरुद्ध वर्त्तना, क्रय-विक्रय-विषयक विवाद, पशु के स्वामी और पालनेवाले का झगडा, सीमा का विवाद, किसी को कठोर दण्ड देना, कठोर वाणी बोलना, चोरी-डाका, बलात्कार, किसी की स्त्री वापुरुष का व्यभिचारी होना, स्त्री और पुरुष का विवाद, दायभाग-विषयक विवाद और द्यूत अर्थात् जड पदार्थ तथा समाह्वय अर्थात् चेतन पदार्थ को दाव पर लगाना। न्याय-सभा में राजा और रजपुरुष देशाचार और शास्त्र-व्यवहार अनुकूल इन विवादों का निर्णय न्यायपूर्वक किया करें। जब राजसभा में पक्षपात से अन्याय किया जाता है तब वहाँ अधर्म के चार विभाग होकर उनमें से एक अधर्म के कर्त्ता को, दूसरा साक्षी, तीसरा सभासदों और चौथा पाद अधर्मी सभा के सभापति=राजा को प्राप्त होता है। जिस सभा में निन्दा के योग्य की निन्दा, स्तुति के योग्य की स्तुति और दण्ड के योग्य को दण्ड दिया जाता है वहाँ राजा और सब सभासद् पाप से रहित तथा पवित्र हो जाते हैं और पाप पापकर्त्ता को ही प्राप्त होता है।
न्याय-व्यवस्था केलिए न्यायालय में धार्मिक, विद्वान, निष्कपट, निर्लोभी और सत्यवादियों को ही साक्षी मानना चाहिए विपरितों को नहीं। स्त्रियों की साक्षी स्त्रियाँ, द्विजों के साक्षी द्विज, शुद्रों के शुद्र और अन्त्यजों के अन्त्यज हुआ करें। बलात्कार के कामों तथा व्यभिचार आदि अपराधों में साक्षी की आवश्यकता नहीं, क्योंकि ये सब काम गुप्त होते हैं।
दोनों ओर से साक्षियों को सुन, बहुपक्षानुसार न्याय करना चाहिए। यदि साक्षियाँ तुल्य हों तो उत्तम गुणी पुरुषों की साक्षी के अनुकूल निर्णय देना चाहिए। यदि दोनों के साक्षी उत्तम गुण और संख्या में तुल्य हों तो द्विजोत्तमों अर्थात् ॠषि, महर्षि और यतियों की साक्षी के अनुसार न्याय करें।
साक्षी सत्य बोलें तो उन्हें किसी प्रकार का दण्ड नहीं मिलना चाहिए। साक्षी के असत्य बोलने पर उसका जिह्वा-छेदन करा देना चाहिए। जब वादी और प्रतिवादी के समक्ष, न्यायसभा में साक्षी आवें तब न्यायाधीश और प्राड्विवाक अथवा वकील या बैरिस्टर उन्हें स्मरण करा दे कि- “हे कल्याण के इच्छुक पुरुष ! ‘जो तू मैं अकेला हूँ’- अपने आत्मा में ऐसा जानकर मिथ्या बोलता है सो ठीक नहीं, क्योंकि पाप और पुण्य को देखनेवाला वह परमात्मा तेरे हृदय में स्थित है, उससे डरकर तू सदा सत्य बोलाकर।” झुठे साक्षियों को धन दण्ड भी देना चाहिए। निर्धन होने की अवस्था में धन दण्ड कम भी किया जा सकता है, परन्तु धनिकों से तो दुगना, तिगुना और चौगुना भी लेना चाहिए।
दण्ड-विधान
अपराधों को रोकने केलिए दण्ड अत्यन्त आवश्यक है। वस्तुतः दण्द ही राजा है। जो राजा दण्डनीय को ददण्ड नहीं देता और अदण्दनीय को दण्ड देता है वह जीता हुआ बडी निन्दा को और मरने के पश्चात् बडे दुःख को प्राप्त होता है।
उपस्थेन्द्रिय, उदर, जिह्वा, हाथ, पैर, आँख, कान, नाक, धन और देह- इन दस स्थानों पर दण्ड दिया जाता है। सर्वप्रथम वाणी का दण्ड देना चाहिए अर्थात् उसकी ‘निन्दा’ करनी चाहिए। दूसरा ‘धिक् दण्ड’ अर्थात् तुझको धिक्कार है कि तूने ऐसा बुरा काम किया, तीसरा उससे ‘धन’ लेना और चौथा ‘वधदण्ड’ अर्थात् उसको कोडा या बेंत से मारना या शिर काट देना।
चोर जिस-जिस अङ्ग से विरुद्ध चेष्टा करता है उसके उस-उस अङ्ग को मनुष्यों को शिक्षा केलिए काट देना चाहिए। चाहे माता, पिता, आचार्य, पुत्र और पुरोहित ही क्यों न हों न्यायासन पर बैठकर किसी का पक्षपात नहीं करना चाहिए। जो जितनी ऊँची स्थिति में हो, अपराध करने पर वह उतना ही अधिक दण्डनीय हो। जिस अपराध में साधारण मनुष्य पर एक पैसा दण्ड हो उसी अपराध में राजा को सहस्त्र पैसा दण्ड हो, मन्त्री को आठ सौ गुणा, इसीप्रकार छोटे-से-छोटे भृत्य अर्थात् चपरासी को आठ गुणे दण्ड से कम नहीं होना चाहिए।
राजा बलात्कार काम करनेवाले डाकुओं को दण्ड देने में एक क्षण की भी देरी न करे। जो स्त्री अपनी रिश्तेदारी के घमण्ड से पति को छोडकर व्यभिचार करे उस स्त्री को राजा, स्त्री और पुरुषों के समक्ष जीती हुई को कुत्तों से कटवाकर मरवा डाले। उसी प्रकार जो पुरुष अपनी स्त्री को छोड-के पर-स्त्री वा वैश्या-गमन करे उस पापी को लोहे के पलङ्ग को अग्नि में तपा, लाल करके जीते हुए को उसपर सुलाके बहुत पुरुषों के सम्मुख भस्म कर दे।
इस दण्ड को कडा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि एक व्यक्ति को ऐसा दण्ड देने से सब लोग बुरे काम करने से बचे रहेगें और यदि सुगम दण्ड दिया जाए तो दुष्ट काम बहुत बढ जाएँगे।
नदी और समुद्रों पर कर
लम्बे मार्ग में, समुद्र की खाडियों वा नदी तथा बडे नदों में जितना लम्बा देश हो उतना कर स्थापन करे। महासमुद्र में निश्चित कर स्थापन नहीं हो सकता, किन्तु जैसा अनुकूल देखे और जिससे राजा और नौका चलानेवाला दोनों लाभयुक्त हो, वैसी व्यवस्थाकरे। इस स्थल से यह भी सिद्ध है कि प्राचीन समय में जहाज़ चलते थे। राजा को चाहिए कि देश-देशान्तर और द्वीप-द्वीपान्तर में नौका से जानेवाले अपने प्रजास्थ पुरुषों की सर्वत्र रक्षा कर उनको किसी प्रकार का दुःख न होने देवे।
अत्यन्त आवश्यक
राजा=सभापति इस बात का सदा ध्यान रखे कि बाल्यावस्था में विवाह न हों। युवावस्था में भी बिना परस्पर प्रसन्नता के विवाह न हों। ब्रह्मचर्य-पालन कराने पर विशेष ध्यान रखे। व्यभिचार और बहु-विवाह को बन्द करे कि जिससे शरीर और आत्मा में पूर्ण बल सदा रहे।
राजपुरुष प्रतिदिन यही प्रार्थना करें कि परमात्मा हमारा राजा और हम उसके सेवक हैं। वह कृपा करके अपनी सृष्टि में हमको राज्याधिकारी करे और हमारे हाथ से अपने सत्य-न्याय की प्रवृत्ति कराए।
इति षष्ठः समुल्लासः सम्पूर्णः ॥6॥