Pancham Samullas

पञ्चम-समुल्लासः

वानप्रस्थ एवं संन्यास-विधिः

वानप्रस्थ का विधान

ब्रह्मचर्याश्रमं समाप्य गृही भवेत् गृही

भूत्वा वनी भवेद्वनी भूत्वा प्रव्रजेत् ||

 मनुष्यों को योग्य है कि ब्रह्मचर्याश्रम को समाप्त करके गृहस्थ होकर वानप्रस्थ और वानप्रस्थ होके संन्यासी होवें | यह अनुक्रम से आश्रम विधान है |

 गृहस्थाश्रम के पश्चात् पचासवें वर्ष की अवस्था में द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जब देखें कि सिर के केश श्वेत हो गये हैं, त्वचा ढीली हो गई है और लड़के के लड़का भी हो गया है तब वानप्रस्थ में प्रवेश करके वन में जाकर बसे |

वन की ओर प्रस्थान

 वानप्रस्थी ग्राम के आहार और वस्त्रादि सब उत्तमोत्तम पदार्थों को छोड़, पुत्रों के पास स्त्री को रख अथवा अपने साथ लेकर वन में निवास करे | सांगोपांग अग्निहोत्र को लेके ग्राम से निकल दृढेन्द्रिय होकर जंगल में जाकर बसे |

वानप्रस्थी का जीवन

 वानप्रस्थी को चाहिए कि नाना प्रकार के सामा आदि अन्न, सुन्दर शाक, मूल, फूल, फल, कन्दादि मुनियों के खाने के योग्य अन्नों से पञ्च- महायज्ञों को करता हुआ उसी से अतिथि सेवा और आप भी निर्वाह करे |

 वानप्रस्थी नित्य स्वाध्याय किया करे, इन्द्रियों को जीते, प्राणीमात्र के साथ मित्रता का व्यवहार करे, विद्या का दान करे, सबपर दयालु हो और किसी से कुछ भी पदार्थ न लेवें | शरीर के सुख के लिए अति प्रयत्न न करे, ब्रह्मचारी रहे, भूमि पर सोवे, अपने आश्रित वा स्वकीय पदार्थों में ममता न करे, वृक्ष के मूल में बसे |

 वानप्रस्थाश्रम में रहता हुआ मनुष्य नाना प्रकार की तपश्चर्या, सत्संग, योगाभ्यास और सुविचार से ज्ञान और पवित्रता को प्राप्त करे | पश्चात् जब संन्यास ग्रहण की इच्छा हो तब स्त्री को पुत्रों के पास भेज देवे और संन्यास ग्रहण कर लेवे |

संन्यास-विधिः

 आयु का तीसरा भाग, अर्थात् पचासवें वर्ष से पचहत्तरवें वर्ष पर्यन्त, वन में बिताकर आयु के चौथे भाग में संगों को छोड़ के परिव्राट अर्थात् संन्यासी हो जाए | यदि इससे पूर्व भी वस्तुतः वैराग्य हो जाए तो पहले ही संन्यास ग्रहण किया जा सकता है | जाबालोपनिषद् में कहा है-

यदहरेव विरजेत्तदहरेव प्रव्रजेद्वनाद्वा

गृहाद्वा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेत् |

 जिस दिन वैराग्य हो जाए उसी दिन घर से, वन से, अथवा ब्रह्मचर्याश्रम से संन्यास ग्रहण कर लेवे, परन्तु जो पूर्ण विद्वान्, जितेन्द्रिय, विषयभोग की कामना से रहित और परोपकार करने की इच्छा से युक्त पुरुष हो, वही ब्रह्मचर्याश्रम से संन्यास लेवे | जो बाल्यावस्था में विरक्त होकर विषयों में फँसे वह महापापी और जो न फँसे वह महापुण्यात्मा सत्पुरुष है |

 परमेश्वर की प्राप्ति के लिए यज्ञ करके उसमें यज्ञोपवीत और शिखादि चिन्हों को छोड़, लोकैषणा, पुत्रैषणा और वितैषणा (धन की इच्छा) से ऊपर उठकर तथा बाह्य अग्नि को हृदय-मन्दिर में आरोपित करके ब्रह्मवित् ब्राह्मण घर से निकल कर संन्यासी हो जावे |

संन्यासी के कर्तव्य

 संन्यासी सब भूतों=प्राणिमात्र को अभय दान देवे | यदि कोई संन्यासी पर क्रोध करे अथवा उसकी निन्दा करे तो भी संन्यासी को उचित है कि वह क्रोध न करे अपितु उसके कल्याणार्थ ही उपदेश करे | सात द्वारों में (मुख, दो नासिका-छिद्र, दो कान, दो आँखें) बिखरी हुई वाणी को मिथ्या कभी न बोले | अपने आत्मा और परमात्मा का चिन्तन करे | मद्य-मांस आदि का सेवन कभी न करे | धर्म और विद्या को बढ़ाने के लिए सदा उपदेश दिया करे | केश, नख, दाढ़ी, मूँछ का छेदन करावे, सुन्दर पात्र, दण्ड और कुसुम्भ आदि से रँगे हुए वस्त्रों को धारण करे, परन्तु अपने मन में यह निश्चय रखे कि दण्ड-कमण्डलु और काषायवस्त्र आदि चिन्ह-धारण धर्म का कारण नहीं है | संन्यासी इन्द्रियों को अधर्माचरण से रोक, राग-द्वेष को छोड़, सब प्राणियों से निर्वैर वर्त्तकर मोक्ष के लिए सामर्थ्य बढ़ाया करे | सत्योपदेश और विद्यादान से मनुष्यों की उन्नति करना संन्यासी का मुख्य कर्म है | ओंकारपूर्वक सप्त व्याहृतियों से विधिपूर्वक प्राणायाम यथाशक्ति करे, परन्तु तीन से न्यून कभी न करे, यही संन्यासी का परम तप है | संन्यासी लोग प्राणायाम से आत्मा, अन्तःकरण और इन्द्रियों के दोष, प्रत्याहार से संगदोष, धारणाओं से पाप और ध्यान से हर्ष-शोक और अविद्यादि दोषों को भस्म करे | सब भूतों से निर्वैर, इन्द्रियों के विषयों का त्याग, वेदोक्त धर्म और अत्युग्र तपश्चरण से ही संन्यासी मोक्ष पद को प्राप्त कर सकते हैं | संग-दोषों को छोड़ और हर्ष-शोकादि सब द्वन्द्वों से विमुक्त होकर संन्यासी ब्रह्म में अवस्थित होता है | संन्यासियों का कर्म यही है कि सब गृहस्थादि आश्रमों को सब प्रकार के व्यवहारों का सत्य निश्चय करा, अधर्म व्यवहारों से छुड़ा, सब संशयों का छेदन कर सत्य धर्मयुक्त व्यवहारों में प्रवृत्त कराया करें |

 

संन्यास का अधिकार

 संन्यास ग्रहण करने का अधिकार ब्राह्मण को ही है | जो सब वर्णों में पूर्ण विद्वान, धार्मिक, परोपकारप्रिय मनुष्य है, उसी का नाम ब्राह्मण है | पूर्ण विद्या, धर्म और परमेश्वर में निष्ठा तथा वैराग्य के बिना संन्यास ग्रहण करने से संसार का विशेष उपकार नहीं होता, इसलिए लोकश्रुति है कि

ब्राह्मण को ही संन्यास का अधिकार है अन्य को नहीं |

संन्यासाश्रम की आवश्यकता

 जैसे शरीर में सिर की आवश्यकता है, वैसे ही आश्रमों में संन्यासाश्रम की आवश्यकता है, क्यों कि इस आश्रम के बिना विद्या और धर्म की वृद्धि कभी नहीं हो सकती | दूसरे आश्रमों को विद्या-ग्रहण, गृहकृत्य और तपश्चर्यादि के कारण अवकाश बहुत कम मिल पाता है, अतः ये आश्रमी धर्म तथा परोपकार में अधिक अग्रसर नहीं हो सकते | संन्यासी के समान पक्षपात छोड़कर वर्त्तना दूसरे आश्रमवालों के लिये दुष्कर है | जैसा संन्यासी सर्वत्तोमुक्त होकर जगत् का उपकार करता है वैसा अन्य आश्रमी नहीं कर सकता, क्यों कि संन्यासी को सत्य विद्या से पदार्थों के विज्ञान की उन्नति का जितना अवकाश मिलता है उतना अन्य आश्रमी को नहीं मिल सकता, परन्तु जो ब्रह्मचर्याश्रम से ही संन्यासी होकर और शिक्षा देकर जगत् की जितनी उन्नति कर सकता है उतनी उन्नति गृहस्थ अथवा वानप्रस्थाश्रम से संन्यास लेने वाला संन्यासी नहीं कर सकता | संन्यासी

संन्यासी का पुत्र

 'संन्यास ग्रहण करना ईश्वर के अभिप्राय के विरुद्ध है, क्योंकि गृहस्थाश्रम न करने से कुलों का मूलोच्छेदन हो जाएगा'- यह कहना मिथ्या है, क्योंकि बहुतों के विवाह करने पर भी सन्तान हीन होते हैं और गृहस्थाश्रम से बहुत सन्तान होकर आपस में विरुद्धाचरण कर लड़ मरें तो कितनी हानि होती है, समझ के विरोध से लड़ाई होती ही है | जब संन्यासी एक वेदोक्त धर्म के उपदेश से परस्पर प्रीति उत्पन्न कराएगा तो लाखों मनुष्यों को बचा देगा, इस प्रकार सहस्त्रों गृहस्थों के समान मनुष्यों की उन्नति करेगा | जो-जो संन्यासी के उपदेश से धार्मिक मनुष्य होंगे वे सब जानों संन्यासी के पुत्र-तुल्य हैं और सब मनुष्य संन्यास ग्रहण कर ही नहीं सकते, क्योंकि सबकी विषयासक्ति नहीं छूट सकती |

संन्यासी और कर्म

 जो संन्यासी कहते हैं- "हमको कुछ कर्तव्य नहीं | अस्त्र-वस्त्र लेकर आनन्द में रहना, अविद्यारूप संसार से माथापच्ची क्यों करना ? अपने को ब्रह्म मानना और दूसरों को भी वैसा उपदेश करते हैं" -यह सब मिथ्या प्रलाप है | क्या उनको अच्छे कर्म भी कर्त्तव्य नहीं ? महर्षि मनु के अनुसार "वैदिकैश्चेव कर्मभिः "धर्मयुक्त सत्य कर्म तो संन्यासी को भी करने चाहिएँ | जब वे भोजनादि कर्मों को नहीं छोड़ सकते तब उत्तम कर्मों को छोड़ने से वे पतित और पाप-भागी ही होंगे | यदि संन्यासी गृहस्थों से अन्न-वस्त्र आदि लेकर सत्योपदेश द्वारा उनका प्रत्युपकार नहीं करेगा तो ऋणी हो जाएगा | जैसे आँख से देखना कान से सुनना न हो तो आँख और कान का होना व्यर्थ है, वैसे ही जो संन्यासी सत्योपदेश और वेदादि सत्य शास्त्रों का विचार और प्रसार नहीं करते तो वे भी जगत् में व्यर्थ भाररूप हैं | जो "अविद्यारूप संसार से माथापच्ची क्यों करना" इत्यादि कहते हैं, वैसा उपदेश करने वाले ही मिथ्यारूप और पाप के बढ़ानेवाले पापी हैं | जो जीव को ब्रह्म बतलाते हैं वे अविद्यारूपी निद्रा में सोते हैं | 'संन्यासी सर्वकर्मनाशी' कहना भी मिथ्या है | संन्यास का अर्थ है- 'सम्यंग न्यस्यन्ति दुःखानि कर्माणि येन स संन्यासः' दुष्ट कर्मों को छोड़कर उत्तम कर्मों में अवस्थित होने का नाम ही संन्यास है | सत्योपदेश सब आश्रमी करें, परन्तु जितना अवकाश और निष्पक्षपातता संन्यासी को होती है उतनी गृहस्थों को नहीं | भ्रमण का जितना अवकाश संन्यासी को मिलता है उतना गृहस्थ ब्राह्मण आदि को कभी नहीं मिल सकता | इसके अतिरिक्त जब वेद विरुद्ध आचरण करें तब उनका नियन्ता भी संन्यास ही होता है |

कतिपय-प्रतिवाद-खण्डन

 एक रात्रि निवास- 'एकरात्रिं वसेद् ग्रामे'- संन्यासी को एक रात्रि से अधिक एक ग्राम में नहीं रहना चाहिए- यह बात थोड़े अंश में तो अच्छी है कि एकत्र वास करने से जगत् का विशेष उपकार नहीं हो सकता | एक ही स्थान पर अधिक रहने से उस स्थान के साथ मोह-ममता और वहाँ के निवासियों के साथ राग-द्वेष होना भी सम्भव है, परन्तु यदि एकत्र रहने से विशेष उपकार होता है तो अवश्य रहे                             जैसे जनक के यहाँ पञ्चशिख आदि संन्यासी महीनों और वर्षों निवास किया करते थे और 'एक स्थान पर न रहना '-यह बात आजकल के पाखण्डी सम्प्रदायियों ने बनाई है, क्योंकि जो संन्यासी एक स्थान पर अधिक रहेगा तो हमारा पाखण्ड खण्डित होकर अधिक न बढ़ सकेगा | 

  संन्यासी तथा धन- 'संन्यासियों को धन देने से दाता नरक में जाता है'-यह बात भी वर्णाश्रमविरोधी, सम्प्रदायी और स्वार्थसिन्धु पौराणिकों की कपोल कल्पना है क्योंकि संन्यासियों को धन मिलेगा तो वे हमारा खण्डन अधिक कर सकेंगे और हमारे अधीन भी नहीं रहेगें |

 जब मुर्ख और स्वार्थियों को दान देते हैं तो विद्वान् और परोपकारी संन्यासियों को देने में कुछ भी दोष नहीं हो सकता | मनु महाराज के अनुसार भी -विविधानि च रत्नानि विविक्तेषूपपादयेत् -नाना प्रकार के रत्न और स्वर्ण आदि धन विविक्त अर्थात् संन्यासियों को देने चाहिएँ | हाँ, यदि संन्यासी योग-क्षेम से अधिक रखेगा तो चोर आदि से पीड़ित और मोहित भी हो जाएगा |

 संन्यासी का श्राद्ध में आगमन -लोगों की यह धारणा भी है कि -'श्राद्ध में संन्यासी आवे या उसे श्राद्ध में खिलाये-पिलाये तो जिमानेवाले के पितर भाग जाएँ और नरक में गिरें' -मिथ्या ही है | मरे हुए पितरों का आना किया हुआ श्राद्ध पितरों को पहुँचना असम्भव, वेद और युक्ति-विरूद्ध होने से मिथ्या है | जब आते ही नहीं तो भाग कौन जाएँगे और नरक में कौन गिरेंगे | हाँ, यह बात तो ठीक है कि जहाँ संन्यासी जाएँगे वहाँ वेदादि शास्त्रों से विरुद्ध होने के कारण यह मृतक-श्राद्धरूपी पाखण्ड दूर भाग जाएगा |

ब्रह्मचर्य से संन्यास

 ब्रह्मचर्य से संन्यास लेने का अधिकार है, परन्तु जो काम के वेग को न रोक सके वह ब्रहचर्य से संन्यास न ले अपितु गृहस्थाश्रम और वानप्रस्थ होकर जब वृद्ध हो जाए तभी संन्यास ले, परन्तु जो पूर्ण जितेन्द्रिय हो वह ब्रह्मचर्याश्रम से ही संन्यास क्यों न ले ? हाँ, इतनी बात अवश्य है कि

संन्यास अधिकारियों को ही लेना चाहिए जो अनधिकारी संन्यास ग्रहण करेगा तो आप भी डूबेगा और औरों को भी डुबाएगा |

भिन्न-भिन्न आश्रमों के कर्तव्य

 विद्या पढ़ने, सुशिक्षा लेने और बलवान् होने आदि के लिए ब्रह्मचर्य, सब प्रकार के उत्तम व्यवहार सिद्ध करने के लिए गृहस्थ, विचार, ध्यान और विज्ञान बढ़ाने और तपश्चर्या कराने के लिए वानप्रस्थ एवं वेदादि सत्यशास्त्रों का प्रचार, धर्मव्यवहार का ग्रहण और दुष्ट व्यवहार का त्याग, सत्योपदेशादि और सबको निःसन्देह करने के लिए संन्यासश्रम है | जो इस संन्यास के मुख्य धर्म सत्योपदेश आदि नहीं करते वे पतित और  नरकगामी हैं, अतः संन्यासियों को उचित है कि सत्योपदेश, शँका-समाधान, वेदादि सत्य शास्त्रों का अध्ययन और वेदोक्त धर्म की वृद्धि प्रयत्न से करके सब संसार की उन्नति किया करें |

साधु-वैरागी-गुसाईं

 जो आजकल के साधु, वैरागी, गुसाईं, खाकी आदि हैं, उन्हें संन्यासाश्रम में नहीं गिना जा सकता, क्योंकि उनमें संन्यासाश्रम का एक भी लक्षण नहीं घटता | ये वेद विरुद्ध मार्ग में प्रवृत्त होकर वेद से अधिक अपने सम्प्रदाय के आचार्यों के वचन मानते और अपने ही मत की प्रशंसा करते, मिथ्या प्रपञ्च में फँसकर अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को अपने मत में फँसाते हैं | सुधार करना तो दूर रहा उसके बदले में संसार को बहकाकर अधोगति को प्राप्त कराते और अपना प्रयोजन सिद्ध करते हैं, अतः इनको संन्यासाश्रम में नहीं गिन सकते | हाँ, ये स्वर्थाश्रमी तो पक्के हैं |

सभी संन्यासी

 जो स्वयं धर्म में चलकर सब संसार को धर्म में चलाते हैं और इस प्रकार इस लोक तथा परलोक में सुख का भोग कराते हैं, वे ही धर्मात्माजन संन्यासी और महात्मा हैं |

 संन्यास के साथ जीवन-यात्रा सम्पूर्ण हुई | इसके आगे 'राजप्रजाधर्म' विषय में लिखा जाएगा |

इति पञ्चमः समुल्लासः सम्पूर्ण: || ५ ||