Dvitiya Samullas

द्वितीय-समुल्लासः

शिक्षा-विषयः

 तीन गुरु

 शतपथब्राह्मणमें कहा है- मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेद ||१

 वस्तुतः जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात् एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य हो तभी मनुष्य ज्ञानवान् होता है |

 वह कुल धन्य है! वह सन्तान बड़ा भाग्यवान्! जिसके माता-पिता धार्मिक विद्वान् होँ | इनमें भी जितना माता से सन्तानों को उपदेश और उपकार पहुँचता है उतना अन्य किसी से नहीं | जितना माता सन्तानों पर प्रेम और उनका हित करना चाहती है उतना अन्य कोई नहीं करता | महाभारत में ठीक ही कहा है- "गुरुणान्चैव सर्वेषां माता परमको गुरु:"- सब गुरुओं में माता परम गुरु है | धन्य है वह माता कि जो गर्भाधान से लेकर जबतक विद्या पूरी न हो तबतक सुशीलता का उपदेश करती है | १. यह शतपथ और छान्दोग्य-उपनिषद्- दोनों का सम्मिलित पाठ है |

 गर्भस्थ बालक पर माता की प्रत्येक चेष्टा और क्रिया का प्रभाव पड़ता है |

 माता और पिता को उचित है कि बालक के गर्भ में आने से पूर्व, मध्य और पश्चात् मादक द्रव्य, मद्य, दुर्गंधयुक्त, रुक्ष, बुद्धिनाशक पदार्थों को छोड़के शान्ति, आरोग्य, बल, बुद्धि, पराक्रम को बढ़ानेवाले घृत, दुग्ध, मिष्ट आदि उत्तम पदार्थों का सेवन करें जिससे रज और वीर्य दोषों से रहित होकर उत्तम गुण युक्त होँ | भोजन के विषय में बहुत सावधान रहना चाहिए, क्योंकि- जैसा अन्न खाया जाता है वैसी ही सन्तान बनती है |

माता द्वारा शिक्षण

 सबसे पूर्व बच्चा माता के गर्भ और गोद में पलता है, अतः

 १. माता बालकों को सदा उत्तम शिक्षा किया करे जिससे सन्तान सभ्य होँ और किसी अंग से कुचेष्टा न करने पाएँ |

 २. जब बालक बोलने लगे तब माता ऐसा उपाय करे कि बालक की जिह्वा कोमल होकर अक्षरों का स्पष्ट और मधुर उच्चारण कर सके | बालकों के साथ तोतली बोली में बोलना उचित नहीं |

 ३. जब वह कुछ-कुछ बोलने और समझने लगे तब सुन्दर वाणी और बड़े-छोटे, मान्य, माता-पिता, राजा, विद्वान् आदि से भाषण, उनके साथ व्यवहार तथा उनके पास बैठने आदि की शिक्षा करे१ जिससे उनकी सर्वत्र प्रतिष्ठा हुआ करे, कहीं अपमान न हो |

 ४. माता ऐसा प्रयत्न करे जिससे सन्तान जितेन्द्रिय, विद्याप्रिय और सत्संग में रूचि रखनेवाली बने | उन्हें ऐसी शिक्षा प्रदान की जाए कि व्यर्थ क्रीडा, रोदन, हास्य, लड़ाई-झगडा, हर्ष-शोक, किसी पदार्थ में लोलुपता और ईर्ष्या-द्वेष न करें |

 ५. सदा ऐसा प्रयत्न करें कि बालकों में सत्य-भाषण, शौर्य, धैर्य एवम् प्रसन्नता आदि गुणों का विकास हो |

 ६. जब बालक-बालिका पाँच-पाँच वर्ष के होँ तब उन्हें देवनागरी-अक्षरों का अभ्यास करावें | तत्पश्चात् अन्य देश की भाषाएँ भी सिखाएँ | फिर ऐसा, मन्त्र, श्लोक, सूत्रादि अर्थ-सहित कण्ठस्थ करा दें, जिनसे उन्हें अच्छी शिक्षा मिले; विद्या, धर्मं और ईश्वर के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त हो तथा माता-पिता, आचार्य, विद्वान्, अतिथि, भाई-बहिन, नौकर-चाकर आदि से कैसे वर्तना इसकी शिक्षा भी मिल सके |

भूत-प्रेत खण्डन

 माता को चाहिए कि जो-जो विद्या-धर्मविरुद्ध और भ्रान्तिजाल में गिराने वाले व्यवहार हैं उनका भी उपदेश कर दें, जिससे बालकों को भुत-प्रेत आदि मिथ्या बातों में विश्वास न हो |

 मृतक शरीर का नाम 'प्रेत' है | जब शरीर का दाह हो जाता है तब उसका नाम भूत होता है, अर्थात् अमुक नाम का पुरुष था, वह अब नहीं रहा | संसार में जितने मनुष्य उत्पन्न हुए और काल के गाल में समा गये- वे भूतस्थ हैं, इससे उनका नाम भूत है | ऐसा ब्रह्मा से लेकर आज तक के विद्वानों का सिद्धान्त है, परन्तु जिसे शंका, कुसंग और कुसंस्कार होता है उसी को भय और शंकारूपी भूत-प्रेत, डाकिनी, शाकिनी आदि दुःखदायी होते हैं | अज्ञानी लोगों ने सन्निपात, ज्वर आदि शारीरिक और उन्मदादि मानसिक रोगों का नाम भूत-प्रेत रख दिया है | औषध आदि से चिकित्सा न कराके ये अज्ञानी भंगी, चमार, धूर्त और पाखण्डियों से झूठे यन्त्र और मन्त्र बँधवाते फिरते हैं | जब ये अज्ञानी धूर्तों के पास जा कर पूछते हैं-"महाराज! पता नहीं इस लड़का, लड़की, स्त्री अथवा पुरुष को क्या हो गया है?'' तब वे कहते हैं- "इसके शरीर में भूत प्रेत घुस गये हैं | यदि तुम इसका उपाय न करोगे तो ये न छूटेंगे और प्राण भी ले-लेंगे | जो तुम इतनी दक्षिणा दो तो हम झाड़ कर निकाल दें |" तब वे अज्ञानी और उनके सम्बन्धी कहते हैं- "महाराज! चाहे हमारा सर्वस्व ले-लीजिए, परन्तु इसे अच्छा कर दीजिए |" तब उन धूर्तों की बन पड़ती है | वे लोग झाँझ, मृदंग और ढोलक आदि ले के गाते और बजाते हैं | फिर उनमें से एक पाखण्डी उन्मत्त होकर नाच-कूदकर कहता है- "मैं इसके प्राण ले-लूँगा |" तब वे अज्ञानी उस भंगी-चमार के पाँव पकड़कर कहते हैं- "आप चाहे सो लीजिए इसको बचाइए |" तब वह धूर्त कहता है-"मैं हनुमान हूँ, लाओ पक्की मिठाई, तेल, सवा मन का रोट और लाल लँगोट |" "मैं देवी और भैरव हूँ, लाओ पाँच बोतल मद्य, बीस मुर्गी, पाँच बकरे, मिठाई और वस्त्र |" जब वे कहतें हैं कि "जो चाहो सो लो" तब तो वह पागल बहुत नाचने-कूदने लगता है, परन्तु कोई बुद्धिमान् उनकी भेंट पाँच जूता, दण्डा या चपेटा से करे तो उसके हनुमान, देवी या भैरव तुरन्त प्रसन्न होकर भाग जाते हैं, क्योंकि यह इनका धन ठगने का ढोंग है |

ज्योतिश्शाश्त्र और जन्मपत्र

 इन धूर्तों की भांति ग्रहरूप ज्योतिषियों के पास जाकर कोई पूछे कि- "महाराज! इसको क्या है?" तो वे कहते हैं- "इसपर सूर्यादि क्रूर ग्रह चढ़े हैं |" माता-पिता को चाहिए कि बालकों को समझा दें कि सूर्यादि कोई क्रूर ग्रह नहीं हैं | जैसी यह पृथिवी जड़ है वैसे ही सूर्यादि लोक हैं | क्या ये चेतन हैं जो क्रोधित होकर दुःख और शांत हो कर सुख दे सकें? सुख-दुःख तो पुण्य और पाप का फल है, ग्रहों का नहीं | यहाँ कोई ऐसा प्रश्न करे कि- "क्या ज्योतिश्शास्त्र झूठा है और जन्मपत्र निष्फल है?" तो उसका उत्तर यह है कि ज्योतिश्शास्त्र में जो अंक, बीज, रेखागणित की विद्या है वह तो सत्य है, परन्तु फल की लीलावाला ज्योतिष् झूठा है | इस फलित-ज्योतिष् के आधार पर बने जन्मपत्र का नाम शोकपत्र ही है, क्योंकि जब सन्तान का जन्म होता है तब सबको आनन्द होता है, परन्तु वह आनन्द तभी तक होता है जबतक जन्मपत्र बनके ग्रहों का फल न सुन लिया जाए | यदि माता-पिता धनवान् होँ तो बहुत-सी लाल-पीली रेखाओं से चित्र-विचित्र और निर्धन होँ तो साधारण रीति से जन्मपत्र बनाकर जब पुरोहित सुनाने आता है तब बालक के माता-पिता ज्योतिषीजी के सामने बैठकर कहते हैं- "इसका जन्मपत्र अच्छा तो है?" ज्योतिषी कहता है- "जो है सुना देता हूँ | इसके जन्मग्रह बहुत अच्छे और मित्रग्रह भी बहुत अच्छे हैं, जिनका फल धनाढ्य और प्रतिष्ठावान् होना है, जिस सभा में जा बैठेगा तो सबके ऊपर इसका तेज पड़ेगा, शरीर से आरोग्य और राजमानी होगा |" इत्यादि बातें सुनकर माता-पिता आदि कहते हैं- "वाह-वाह ज्योतिषीजी! आप बहुत अच्छे हैं |" ज्योतिषी समझता है कि इन बातों से कार्य सिद्ध नहीं होगा | तब वह कहता है- "ये ग्रह तो ठीक हैं, परन्तु ये ग्रह क्रूर हैं, अर्थात् अमुक-अमुक ग्रह के योग से आठ वर्ष की अवस्था में इसका मृत्युयोग है |" यह सुनकर माता-पिता पुत्रजन्म के आनन्द को छोड़कर शोकसागर में डूबकर ज्योतिषी से कहते हैं- "महाराज! अब हम क्या करें?" तब ज्योतिषीजी कहते हैं- "उपाय करो | दान करो | ग्रह के मन्त्रों का जाप कराओ और नित्य ब्राह्मणों को दान करो तो अनुमान है कि नवग्रहों के विघ्न हट जाएँगे |" अनुमान शब्द इसलिए है कि यदि मर जाए तो कहेंगे हम क्या करें, परमेश्वर के ऊपर कोई नहीं है, हमने तो यत्न किया और तुमने कराया, परन्तु उसके कर्म ही ऐसे थे | यदि बच जाए तो कहते हैं कि देखो! हमारे मन्त्र, देवता और ब्राह्मणों की कैसी शक्ति है कि तुम्हारे लड़के को बचा लिया |

 यहाँ यह होना चाहिए यदि इनके पूजा-पाठ से कुछ न हो तो दुगुने-तिगुने रूपये उन दूर्तों से लेने चाहिएँ और बच जाए तो भी ले-लेने चाहिएँ, क्योंकि जैसे ज्योतिषियों ने कहा कि- "इसके कर्म और परमेश्वर के नियम तोड़ने का सामर्थ्य किसी का नहीं" वैसे गृहस्थ भी कहें कि- यह अपने कर्म और परमेश्वर के नियम से बचा है तुम्हारे करने से नहीं |"

मारण-मोहन, मन्त्र-तन्त्र

 

 मारण-मोहन, उच्चाटन, मन्त्र-तन्त्र, यन्त्र, शीतला आदि- ये सब भी ढोंग है | बाल्यावस्था से ही सन्तानों के हृदय में यह बात डाल दें कि मारण-मोहन, रसायन और वशीकरण आदि की बातें महापामरपनकी बातें हैं | बालकों को समझा दें कि यदि कोई कहे कि- "जो हम मन्त्र पढ़, डोरा या यन्त्र बना देवें तो परमेश्वर, देवता और पीर उस मन्त्र, तन्त्र के प्रभाव से कोई विघ्न नहीं होने देते |" उनको यही उत्तर देना चाहिए कि क्या तुम परमेश्वर के नियम और कर्म फल से भी बचा सकोगे? तुम्हारे इस प्रकार करने से भी कितने ही लड़के मर जाते हैं और क्या तुम स्वयं मृत्यु से बच सकोगे? ऐसा उत्तर देने पर वे कुछ नही कह सकते और वे धूर्त जान लेते हैं कि यहाँ हमारी दाल नहीं गलेगी |

वीर्य-रक्षा = ब्रह्मचर्य का महत्व

 माता-पिता बालकों को यह भी समझा दें कि वीर्य की रक्षा में आनन्द और नाश करने में दुःख है | जैसे- "देखो! जिसके शरीर में वीर्य सुरक्षित रहता है तब उसको आरोग्य, बुद्धि, बल, पराक्रम बढ़के बहुत सुख की प्राप्ति होती है | इसके रक्षण में यही रीति है कि विषयों की कथा, विषयी लोगों का संग, विषयों का ध्यान, स्त्री का दर्शन, एकान्त सेवन, सम्भाषण और स्पर्श आदि कर्म से ब्रह्मचारी पृथक् रहकर उत्तम शिक्षा और पूर्ण विद्या को प्राप्त होवें | जिसके शरीर में वीर्य नहीं होता वह नपुंसक, महाकुलक्षणी और जिसको प्रमेह रोग होता है वह दुर्बल, निस्तेज, निर्बुद्धि होता है, उत्साह, साहस, धैर्य, बल, पराक्रमादि गुणों से रहित हो कर नष्ट हो जाता है |"

माता-पिता और आचार्य

 जन्म से पाँचवें वर्ष तक माता बालकों को शिक्षित करे | माता का अर्थ ही निर्माण करनेवाली है, अतः वह बालक के चरित्र-निर्माण की ओर पूरा ध्यान दे| माता की गोद से उतरकर बालक पिता की अंगुली पकड़ता है, अतःछठे से आठवें वर्ष तक पिता को बालक के जीवन में शिष्टाचार की स्थापना करनी चाहिए | नववें वर्ष के प्रारम्भ में द्विज अपने सन्तानों का उपनयन-संस्कार करके आचार्य कुल में, अर्थात् जहाँ पूर्ण विद्वान् और पूर्ण विदुषी स्त्री शिक्षा और विद्यादान करनेवाली होँ, वहाँ लड़के और लड़कियों को भेज दें |

शिक्षा में दण्ड का स्थान

 जो माता-पिता और आचार्य सन्तान और शिष्यों का ताडन करते हैं वे जानो अपने सन्तान और शिष्यों को अपने हाथ से अमृत पिला रहे हैं और जो सन्तानों वा शिष्यों का लाडन करतें हैं वे अपने सन्तानों और शिष्यों को विष पिलाके नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं, क्योंकि लाडन से सन्तान और शिष्य दोष-युक्त और ताडन से गुणयुक्त होते हैं, परन्तु माता-पिता तथा आचार्य ईर्ष्या-द्वेष से ताडन न करें अपितु ऊपर से भय-प्रदान और भीतर से कृपादृष्टि रखें | जैसे कुम्हार घड़े में अन्दर हाथ लगाकर बाहर से चोट लगाता है, ऐसे ही माता-पिता आदि भी करें |

आचार्य द्वारा शिक्षण

 आचार्य को ज्ञान के साथ-साथ सदाचार की भी शिक्षा प्रदान करनी होती है, क्योंकि आचार्य का अर्थ ही है -आचारं ग्राह्यति- जो आचार का ग्रहण कराता है

 शिक्षा के साथ-साथ आचार्य चोरी, जारी, आलस्य, प्रमाद, मादकद्रव्य-सेवन, मिथ्याभाषण, हिंसा, क्रूरता, ईर्ष्या, द्वेष, मोह आदि दोषों को छोड़ने और सत्याचार के ग्रहण करने की शिक्षा करे |

 आचार्य बालकों के हृदयों में यह बात अच्छी तरह बैठा दे कि-

 १. जिस पुरुष ने जिसके सामने एक बार चोरी-जारी, मिथ्याभाषण आदि कर्म किया उसकी प्रतिष्ठा उसके सामने मृत्युपर्यन्त नहीं होती |

 २. कभी मिथ्याभाषण और मिथ्या प्रतिज्ञा नहीं करनी, क्योंकि जैसी हानि मिथ्या प्रतिज्ञा करनेवाले की होती है, वैसी अन्य की नहीं | इससे जिसके साथ जैसी प्रतिज्ञा करनी उसके साथ वैसी ही पूरी करनी चाहिए, अर्थात् जैसे किसी ने किसी से कहा कि "मै तुमको या तुम मुझसे अमुक समय में मिलूँगा या मिलना अथवा अमुक वस्तु अमुक समय तुमको मैं दूँगा" इसको वैसी ही पूरी करे नहीं तो उसका विश्वास कोई भी नहीं करेगा |

 ३. किसी को अभिमान न करना चाहिए |

 ४. किसी के साथ छल, कपट अथवा कृतघ्नता नही करनी चाहिए, क्योंकि छल, कपट वा कृतघ्नता से अपना ही हृदय दु:खित होता है तो दूसरे का क्यों न होगा |

'छल' और 'कपट'उसको कहते हैं जो भीतर और, बाहर और, रख दूसरे को मोह में डाल और दूसरे की हानि पर ध्यान न देकर स्वप्रयोजन सिद्ध करना |

 

 कृतघ्नता का अर्थ है कि किसी के किये हुए उपकार को न मानना |

 ५. क्रोधादि दोष और कटुवचन को छोड़ शान्त और मधुर वचन ही बोलें और बहुत बकवाद न करें | यजुर्वेद (२३ | २५) में कहा है- ब्रह्मन्मा त्वं वदो बहु |

 हे ज्ञानिन्! तू बहुत मत बोला कर, अतः जितना बोलना चाहिए उससे न्यून वा अधिक न बोले |

 ६. बड़ों को मान्य दे, उन्हें उच्चासन पर बैठावे | प्रथम नमस्ते करे | उनके सामने उच्चासन पर न बैठे |

 ७. सभा में वैसे स्थान बैठे जैसी अपनी योग्यता हो और दूसरा कोई न उठावे |

 ८. विरोध किसी से न करे |

 ९. सम्पन्न होकर गुणों का ग्रहण और दोषों का त्याग रखें | दुष्टों का संग त्याग कर सज्जनों का संग करना चाहिए |

१०. अपने माता-पिता और आचार्य की तन, मन और धनादि उत्तम-उत्तम पदार्थों से प्रीतिपूर्वक सेवा करे |

११. सदा परमात्मा की उपासना करे |

१२. जिस प्रकार आरोग्य, विद्या और बल प्राप्त हो उसी प्रकार का भोजन, छादन और व्यवहार करें-करावें, अर्थात् जितनी भूख हो उससे कुछ न्यून भोजन करें |

१३. मद्य, मांस आदि का सेवन न करें |

१४. अज्ञात् गम्भीरजल में प्रवेश न करें, क्योंकि जल-जंतु वा अन्य किसी पदार्थ से दुःख होना सम्भवहै | इसीलिए महर्षि मनु (६ | ४६)ने कहा है-नाविज्ञाते जलाशये-अविज्ञाता जलाशय में प्रविष्ट होकर स्नान आदि न करें |

१५. नीचे दृष्टि कर ऊँचे-नीचे स्थान को देखकर चले, वस्त्र से छानकर जल पिये, सत्य से पवित्र करके वचन बोले और मन से विचार कर आचरण करे |

आचार्य की अभिमान-शून्यता

 आचार्य विद्यार्थी को ज्ञान से परिपूर्ण करने का प्रयत्न करता है | माता पिता ने अपने बालकों को जो धर्म, विद्या, उत्तम आचरण के श्लोक, निघंटु, निरुक्त, अष्टाध्यायी अथवा वेद-मन्त्र आदि कंठस्थ कराये होँ उन-उनका अर्थ विद्यार्थियों को जनाना अच्रार्य का कर्त्तव्य है | आचार्य विद्यार्थी को ज्ञान से भरपूर और सदाचारी बनाकर गुरुकुल से विदाई देते हुए उन्हें सम्बोधित करते हुए कहता है -

 यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतरानि | -तैति० १ | ११

 हमारे जो-जो श्रेष्ठ कर्म हैं उन्हीं का तुम सेवन करना, यदि हममें कोई दोष, दुर्गण अथवा त्रुटि हो तो उसे छोड़ देना | इन सब्दों में आचार्य की कितनी निरहंकारिता झलकती है! सचमुच ऐसे आदर्श आचार्य ही विद्यार्थियों का निर्माण कर सकते हैं |

माता-पिता का परम धर्म

 वे माता और पिता अपने संतानों के पूर्ण वैरी हैं जो अपने सन्तानों को विद्या के भूषण से भूषित नहीं करते, क्योंकि विद्याहीन बालक विद्वानों की सभा में वैसे ही तिरस्कृत और कुशोभित होते हैं जैसे हँसों के बीच में बगुला | इसलिए माता-पिता का यही कर्तव्य-कर्म, परमधर्म और कीर्ति का काम है कि अपने सन्तानों को तन, मन, धन, से विद्या, धर्म, सभ्यता और उत्तम शिक्षा से युक्त करना |

                                                                                                                                   

इति द्वितीया: समुल्लास: सम्पूर्ण: || २ ||