Ashtam Samullas

अष्टम-समुल्लासः

सृष्टि-उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय

सर्गारम्भ के पूर्व जगत् की अवस्था

सृष्टि-उत्पत्ति से पूर्व यह जगत् अन्धकार से आवृत्त और जानने के अयोग्य था। उस समय न पृथिवी थी, न आकाश और न भूलोक। मनुष्य, पशु-पक्षी तथा कीट-पतङ्ग और वृक्षादि प्राणिजगत् भी उस समय नहीं था। पश्चात् परमेश्वर ने अपने सामर्थ्य से इसे कारणरूप से कार्यरूप में परिवर्तित कर दिया। जो परमात्मा इस विविध प्रकार की सृष्टि को उत्पन्न कर इसका धारण और अन्त में प्रलय करता है, वही परमात्मा जानने योग्य है। वेदान्त दर्शन में भी कहा है- ‘जन्माद्यस्य यतः’ जिस परमात्मा से इस जगत् का जन्म, स्थिति और प्रलय होता है, वही ब्रह्म जानने योग्य है।

सृष्टि का निमित्त कारण प्रभु

यह जगत् निमित्त कारण परमात्मा से उत्पन्न हुआ है, परन्तु इसका उपादान कारण प्रकृति है। ‘सलिलं सर्वमा इदम्’- यह सम्पूर्ण जगत की उत्पति से पूर्व अपने उपादान कारण प्रकृति में लीन था और प्रकृति से आवृत्त था। परमात्मा के तप की महिमा से यह संसार प्रकट हो जाता है। इस उत्पन्न हुए जगत् का धारण वे परमात्मा ही करते हैं, उसी के आधार में जीव रहते हैं और अन्ततः उसी में प्रवेश करते हैं। इस ब्रह्म को ही जानने की कामना करनी चाहिए।

तीन अनादि पदार्थ

तीन अनादि पदार्थ हैं। एक ईश्वर, दूसरा जीव और तीसरा जगत् का कारण- प्रकृति। ये न कभी उतपन्न होते हैं और न कभी नष्ट होते हैं। इसमें ॠग्वेद [1।164।20] का निम्न प्रमाण है-

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकाशीति॥

जीव और ब्रह्म दोनों परस्पर मित्रतायुक्त अनादि हैं। इसी प्रकार कारणरूप प्रकृति भी अनादि है। तीनों के गुण-कर्म-स्वभाव भी अनादि हैं। जीव और ब्रह्म में जीव तो इस वृक्षरूपी संसार में पाप-पुण्यरूपी फलों को भोगता है और परमात्मा कर्म फलों को न भोगता हुआ बाहर-भीतर सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है।

सृष्टि- उत्पत्ति

‘सदेव सौम्येदमग्र आसीत्’- हे सौम्य ! श्वेतकेतो ! सृष्टि-उत्पत्ति से पूर्व प्रलयावस्था में भी यह जगत् अपने कारण में विद्यमान था। असद्वा इदमग्र आसीत्- सृष्टि के पूर्व ये सब लोक-लोकान्तर अदृश्य-से, असत्-से थे। आत्मैवेदमग्र आसीत्- सृष्टि से पूर्व प्रलयावस्था में भी आत्मा थे ही। ब्रह्म वा इदमग्र आसीत्- इन आत्माओं को कर्मानुसार फल देनें के लिए, सृष्टि का निर्माण करनेवाले ब्रह्म तो अनादि काल से हैं ही।

प्रलय की समाप्ति पर ‘तदैक्षत बहु स्याम प्रजायेयेति’ परमात्मा ने ईक्षण [ज्ञान, तप, प्रेरणा] के द्वारा प्रकृति से इस सृष्टि के लोक-लोकान्तरों का निर्माण कर दिया। प्रकृति सत् है, अनादि है, यह कभी उत्पन्न नहीं होती। वे सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान् परमात्मा अपने ज्ञानरूप तप=ईक्षण से प्रकृति को इस सृष्टिरूप विकृति में ले-आते हैं। नियत समय तक इसके धारण के पश्चात् वे प्रलय कर देते हैं, विकृति पुनः प्रकृति के रूप में परिवर्तित हो जाती है।

‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’- इस उत्पन्न सृष्टि में प्रत्येक पिण्ड परमात्मा की सत्ता से व्याप्त है। सबमें समाया हुआ वह ब्रह्म ‘सर्व’ है। तज्जलानिति शान्त उपासीत्-तत्- वह परमात्मा ‘ज’ इस जगत् को उत्पन्न करनेवाले ‘ल’ अन्त में इसका प्रलय कर देनेवाले और ‘अन्’ वर्त्तमान में इसका धारण करनेवाले हैं। जीव को चाहिए कि वह शान्त होकर ‘जलान्’ उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयकर्त्ता के रूप में परमात्मा की उपासना करे। नेह नानास्ति किञ्चन- उस चेतनमात्र, अखण्डैकरस ब्रह्म में नाना वस्तुओं का मेल नहीं है, किन्तु ये सभी लोक-लोकान्तर पृथक्-पृथक् स्वरूप में परमेश्वर के आधार में स्थित हैं।

जगत्-उत्पत्ति के तीन कारण

 जगत् की उत्पत्ति के तीन कारण हैं यथा-

1-  निमित्तकारण- निमित्तकारण उसको कहते हैं कि जिसके बनाने से कुछ बने, न बनाने से न बने। आप स्वयं बने नहीं, दूसरे को प्रकारान्त बना देवे। यह निमित्तकारण भी दो प्रकार का होता है- एक मुख्य और दूसरा गौण। सब सृष्टि को कारण से बनाने, और उसका धारण करने और प्रलय करने तथा सबकी व्यवस्था रखनेवाला मुख्य निमित्तकारण परमात्मा है। परमात्मा की सृष्टि में से पदार्थों को लेकर अनेकविध कार्यान्तर करनेवाला गौण निमित्त कारण जीव है।

2-  उपादानकारण- उपादानकारण उसको कहते हैं जिसके बिना कुछ न बने, वही अवस्थान्तर रूप होके बने और बिगडे भी। प्रकृति उपादान-कारण है। यह संसार को बनाने की सामग्री है। यह जड होने से आप-से-आप न बन और बिगड सकती है, किन्तु दूसरे के बनाने से बनती और बिगाडने से बिगडती है। कहीं-कहीं जड के निमित्त से जड भी बन और बिगड जाते हैं। जैसे परमेश्वर के रचित बीज पृथिवी में गिरने और जल पाने से वृक्षाकार हो जाते हैं और अग्नि आदि जड के संयोग से बिगड भी जाते हैं, परन्तु इसका नियमपूर्वक बनाना और बिगाडना परमेश्वर और जीव के अधीन है।

3-  साधारणकारण- साधारणकारण उसको कहते हैं जो बनाने में साधन और साधारणनिमित्त हो। जब कोई वस्तु बनाई जाती है तब जिन-जिन साधनों से अर्थात् ज्ञान, दर्शन, बल, हाथ और नाना प्रकार के साधन तथा दिशा, काल और आकाशादि साधारण निमित्तकारण कहाते हैं।

एक उदाहरण लीजिए। घडे को बनानेवाला कुम्हार निमित्तकारण है, मिट्टि घडे का उपादानकारण है और दण्ड, चक्र, दिशा, काल, प्रकाश, हाथ, ज्ञान, क्रिया आदि साधारण निमित्तकारण हैं। इन तीन कारणों के बिना न कोई भी वस्तु बन सकती है और न बिगड सकती है।

परमात्मा और जगत् में भेद

नवीनवेदान्ती ईश्वर को ही जगत् का अभिन्ननिमित्तोपादनकारण मानते हैं। वे कहते हैं कि ‘यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च’- जैसे मकडी बाहर से कोई पदार्थ नहीं लेती, अपने ही में से तन्तु निकाल, जाला बनाकर आप ही उसमें खेलती है, वैसे ब्रह्म अपने में से जगत् को बना, आप जगदाकार बन आप ही क्रीडा कर रहा है, परन्तु यह बात ठीक नहीं है। वास्तव में यहाँ मकडी का जड-रूप शरीर तन्तुओं का उपादानकारण है और जीवात्मा निमित्तकारण है। इसीप्रकार व्यापक ब्रह्म ने अपने भीतर व्याप्त प्रकृति से इस जगत् जाल को तना है। यदि ब्रह्म को जगत् का उपादानकारण मानें तो ब्रह्म परिणामी, अवस्थान्तरयुक्त, विकारी हो जाए। तथा ‘उपादानकारण के गुण कार्य में आते हैं’- इस सिद्धान्त के अनुसार जगत् यदि परमात्मा का विकार होता तो पृथिव्यादि कार्य भी चेतन होने चाहिएँ।

जगत् में परमात्मा के गुण, धर्म नहीं हैं, इसे दर्शाने के लिए यहाँ जगत् और परमात्मा के गुणों की तुलना की जाती है-

1-  परमात्मा सत्, चित् और आनन्दस्वरूप है, परन्तु जगत् कार्यरूप से असत् अर्थात् सदा न रहनेवाला, जड और आनन्द-रहित है।

2-  परमात्मा अज अर्थात् उत्पन्न नहीं होता और जगत् उत्पन्न हुआ है।

3-  परमात्मा अदृश्य है और जगत् दृश्य है।

4-  परमात्मा अखण्ड है और जगत् के खण्ड हो सकते हैं।

5-  परमात्मा विभु है और जगत् परिछिन्न है।

सृष्टि-उत्पत्ति का प्रयोजन

कुछ लोग यह कुतर्क किया करते हैं कि परमात्मा ने यह सृष्टि क्यों बनाई? यदि परमात्मा इस सृष्टि को न बनाते तो स्वयं भी आनन्द में रहते और जीवों को भी सुख-दुःख प्राप्त न होता। इस शङ्का का समाधान निम्न है-

1-  ये आलसी और दरिद्र लोगों की बातें हैं, पुरुषार्थी की नहीं।

2-  जीवों को प्रलय में क्या सुख वा दुःख है? सृष्टि में दुःख की तुलना में सुख कई गुणा अधिक है और बहुत-से पवित्रात्मा जीव मुक्ति के साधन करके मोक्ष के आनन्द को भी प्राप्त होते हैं। प्रलय में वे निक्कमें और सुषुप्ति में पडे रहते हैं।

3-  यदि सृष्टि न बने तो प्रलय के पूर्व सृष्टि में किये पाप-पुण्यों का फल परमात्मा कैसे दे सके और जीव क्योंकर भोग सके।

4-  ईश्वर में जगत् रचना का जो विज्ञान, बल और क्रिया है उसका जगत् की उत्पत्ति के अतिरिक्त और क्या प्रयोजन हो सकता है? परमात्मा के न्याय, दया आदि गुण भी तभी सार्थक हो सकते हैं जब वो जगत् को बनाए।

बीज पहले या वृक्ष

 

बीज पहले है और वृक्ष पीछे। बीज, हेतु, निदान, निमित्त और कारण इत्यादि शब्द एकार्थ- वाचक हैं। कारण का नाम बीज होने से वह कार्य के प्रथम ही होआ है। जैसे बीज से वृक्ष अंकुरित होता है वैसे ही प्रकृतिरूप बीज से संसारवृक्ष अंकुरित होता है। परमात्मा इस बीज   रूपी प्रकृति से ही संसाररूपी वृक्ष को उत्पन्न करते हैं

निराकार ईश्वर से जगत् की उत्पत्ति

सृष्टि उत्पत्ति के लिए ईश्वर को साकार मानने की कोई आवश्यकता नहीं। वस्तुतः जो साकार है वह ईश्वर ही नहीं, क्योंकि साकार परिमित शक्तियुक्त तथा भूख-प्यास आदि से युक्त होगा। साकार ईश्वर सृष्टि का निर्माण कर ही नहीं सकता। यदि परमात्मा साकार होता तो हमारी भाँति त्रसरेणु, अणु, परमाणु और प्रकृति को अपने वश में ला ही नहीं सकता। परमात्मा अपनी अनन्त शक्ति, बल और पराक्रम द्वारा वह सब कार्य करता है जोकि जीव और प्रकृति से कभी हो ही नहीं सकते। देहधारी न होने से परमात्मा प्रकृति से भी सूक्ष्म और उसमें व्यापक है, अतः वह प्रकृति को पकडकर जगदाकार कर देता है। ‘निराकार परमात्मा का बनाया जगत् भी निराकार होना चाहिए’- ऐसा कहना लडकपन की बात है, क्योंकि परमात्मा जगत् का उपादानकारण नहीं है, अपितु निमित्तकारण है। इस जगत् का उपादानकारण प्रकृति है। यदि प्रकृति निराकार होती तो संसार भी निराकार होता। उपादानकारण प्रकृति के बिना प्रभु संसार को नहीं बना सकते। यह प्रकृति अनादि है। इस प्रकृति का और कोई कारण नहीं है। क्योंकि मूले मूलाभावादमूलं मूलम्- मूल-का-मूल अथवा कारण-का-कारण नहीं हुआ करता। जगत् की उत्पत्ति से पूर्व परमेश्वर, प्रकृति और जीव तीनों अनादिरूप से विद्यमान थे। यदि इनमें से एक भी न हो तो यह जगत् भी न हो।

सृष्टि के विषय में नास्तिकों के मत

पहला नास्तिक कहता है- “शून्य ही एक पदार्थ है। सृष्टि के पूर्व शून्य था, अन्त में शून्य होगा, क्योंकि जो भाव है उसका अभाव होकर शून्य हो जाएगा।“ इसका उत्तर यह है कि- शून्य आकाश, अदृश्य, अवकाश और बिन्दु को भी कहते हैं। शून्य जड पदार्थ है, इस शून्य में सब पदार्थ अदृश्य रहते हैं। जैसे एक बिन्दु से रेखा, रेखाओं के वर्तुलाकार होने से भूमि, पर्वतादि ईश्वर की रचना से बनते हैं और शून्य का जाननेवाला शून्य कभी नहीं होता।

दूसरा नास्तिक कहता है- “अभाव से भाव की उत्पत्ति होती है जैसे बीज का मर्दन किये बिना अंकुर उत्पन्न नहीं होता, परन्तु बीज को तोडकर देखें तो उसमें अंकुर का अभाव है, अतः अभाव से उत्पति हुई।” इसका उत्तर- बीज का उपमर्दन करनेवाला पहले ही बीज में था, जो न होता तो उपमर्दन कौन करता और उत्पन्न भी कभी न होता।

तीसरा नास्तिक कहता है-“कर्मों का फल प्राप्त होना ईश्वर के अधीन है। जिस कर्म का फल ईश्वर देना चाहे देता है, जिस कर्म का फल न देना चाहे नहीं देता।” इसका उत्तर यह है कि यदि कर्म फल ईश्वर के अधीन होता तो ईश्वर बिना कर्म किये भी फल दे देता, परन्तु बिना कर्म किये फल नहीं मिलता। वस्तुतः मनुष्य जैसा कर्म करता वैसा ही ईश्वर फल देता है।

चौथा नास्तिक कहता है- “बिना निमित्त के पदार्थ की उत्पत्ति होती है। जैसे बबूल आदि वृक्षों में तीक्ष्ण अणिवाले काँटे न जाने कहाँ से आ जाते हैं, ऐसे ही सृष्टि के आरम्भ में शरीर आदि पदार्थ बिना निमित्त के होते हैं।” इसका उत्तर स्पष्ट है। यदि अनिमित्त से ही पदार्थ उत्पन्न होते तो बिना काँटेवाले वृक्षों में भी काँटे उत्पन्न हो जाने चाहिएँ थे।

नवीनवेदान्ती पाँचवे नास्तिकों की कोटि में आते हैं, उनका कहना है कि- “सब पदार्थ उत्पत्ति और विनाशवाले हैं, इसलिए सब अनित्य हैं।” इसका उत्तर यह है कि जो उत्पति और विनाश वाले पदार्थ हैं वे निश्चय ही अनित्य हैं, परन्तु ब्रह्म, जीव तथा जगत् का उपादानकारण प्रकृति- ये तीनों उत्पत्ति, विनाशवाले न होने से अनादि, नित्य एवं सत्य हैं।

छठा नास्तिक कहता है कि- “पाँच भूतों के नित्य होने से सब जगत् नित्य है।” यह बात सत्य नहीं, क्योंकि स्थूलजगत्, शरीर तथा घट-पटादि पदार्थों को उत्पन्न और नष्ट होते हुए हम देखते ही हैं, अतः कार्यपदार्थों को नित्य नहीं माना जा सकता।

सातवाँ नास्तिक कहता है कि- “सब पदार्थ पृथक्-पृथक् हैं उनसे भिन्न कोई सम्मिश्रित (अवयवी) पदार्थ नहीं हैं।” इसका उत्तर यह है कि स्वरूप से सब पदार्थ पृथक्-पृथक् हैं, परन्तु स्वरूपतः पृथक् होते हुए अवयवों में एक अवयवी भी है। एक वन में वृक्ष अलग-अलग हैं। उन सब वृक्षों से ही वन की सत्ता है।

आठवाँ नास्तिक कहता है कि- “सब पदार्थों में इतरेतर अभाव की सिद्धि होने से सब अभावरूप हैं, जैसे गाय घोडा नहीं और घोडा गाय नहीं, अतः सबको अभावरूप मानना चाहिए।” इसका उत्तर यह है कि चाहे सब पदार्थों में इतरेतराभाव का योग हो, परन्तु गाय-में-गाय और घोडे-में-घोडे का भाव ही है, अभाव नहीं। जो पदार्थों का भाव न हो तो इतरेतराभाव किसमें कहा जाए।

नववाँ नास्तिक कहता है- “स्वभाव से जगत् की उत्पत्ति होती है जैसे पानी, अन्न एकत्र हो, सडने से कृमि उत्पन्न होते हैं, हल्दी, चूना और नींबू का रस मिलने से ‘रोली’ बन जाती है, वैसे सब जगत् तत्त्वों के स्वाभाविक गुणों से उत्पन्न हुआ है, इसके बनानेवाला कोई भी नहीं।" इसका उत्तर यह है कि यदि उत्पत्ति स्वभाव से होती है तो उसका विनाश नहीं होना चाहिए और यदि विनाश भी स्वभाव से मानो तो उत्पत्ति नहीं हो सकेगी । जो उत्पत्ति और विनाश दोनों को एक साथ मानोगे तो उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। जो उत्पत्ति और विनाश दोनों को एक साथ मानोगे तो उत्पत्ति और विनाश की व्यवस्था कभी नहीं हो सकेगी। जो पदार्थ संयोग से बनते हैं उनको भी कोई मिलानेवाला चाहिए जैसे हल्दी, चूना और नींबू का रस अपने-आप आकर नहीं मिलते, किसी के मिलाने से मिलते हैं। वैसे ही परमात्मा प्रकृति के पदार्थों को ज्ञान और युक्ति से मिलाते हैं। इसप्रकार सृष्टि-स्वभाव से नहीं अपितु ईश्वर की रचना से होती है।  

ईश्वर की आवश्यकता

प्रश्न उत्पन्न होता है कि जगत्कर्त्ता ईश्वर के मानने की आवश्यकता ही क्या है? यह जगत् अनादि काल से जैसे-का-तैसा बना हुआ है। न कभी इसकी उत्पत्ति हुई और न कभी विनाश होगा। इसका उत्तर यह है कि कर्त्ता के बिना न कोई क्रिया हो सकती है और न क्रियाजन्य पदार्थ बन सकते हैं। पृथिवी आदि पदार्थों में संयोग विशेष से रचना दिखाई देती है, अतः वे अनादि कभी नहीं हो सकते। जो पदार्थ संयोग से बनता है वह संयोग के पूर्व नहीं होता और वियोग के अन्त में नहीं रहता। सृष्टि की उत्पति और प्रलय के लिए किसी चेतन कर्त्ता का मानना आवश्यक है।

देखो ! शरीर में किसप्रकार की ज्ञानपूर्वक सृष्टि रची है कि जिसको विद्वान् लोग देखकर आश्चर्य मानते हैं। भीतर हाडों का जोड, नाडियों का बन्धन, मांस का लेपन, चमडी का ढक्कन, प्लीहा, यकृत्, फेफडा, पंखा-कला का स्थापन, जीव का संयोजन, शिरोरूप मूलरचन, लोम-नखादि का स्थापन, आँख की अतीव सूक्ष्म शिरा का तारवत् ग्रन्थन, इन्द्रियों के भोगों का प्रकाशन, जीव के जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति अवस्था के भोगने के लिए स्थान विशेषों का निर्माण, सब धातु का विभागकरण, कला-कौशल से स्थापनादि अद्भुत् सृष्टि को बिना परमेश्वर के कौन कर सकता है? इसके बिना नाना प्रकार के रत्न-धातु से जडित भूमि, विविध प्रकार के वटवृक्षादि के बीजों में अतिसूक्ष्म रचना, असंख्य हरित, श्वेत, पीत, कृष्ण, चित्ररूपों से युक्त पत्र, पुष्प, फल, मूलनिर्माण, मिष्ट, क्षार, कटुक, कसाय, तिक्त, अम्लादि विविध पत्र, पुष्प, फल, अन्न कन्द-मूलादि रचन, अनेकानेक करोडों भूगोल, सूर्य, चन्द्रादि लोकनिर्माण, धारण, भ्रामण, नियमों में रखना आदि कार्यों को परमेश्वर के बिना कोई भी नहीं कर सकता।

जीव परमेश्वर नहीं हो सकता

जैन मतावलम्बियों के मत में ‘अनादि ईश्वर कोई नहीं, किन्तु जीव ही योगाभ्यास करते-करते परमेश्वर हो जाता है।’ यह मत ठीक नहीं। यदि जगत् सृष्टा अनादि ईश्वर न हो जीवों के शरीर और इन्द्रियों का निर्माण कौन करे? इनके बिना जीव साधन नहीं कर सकता और साधन न होने से सिद्ध भी नहीं हो सकता। एक बात और, जीव चाहे जितना साधन करे वह ईश्वर कभी नहीं हो सकता। जीव का ज्ञान परम अवधि तक बढे तो भी वह परिमित ज्ञान और सामर्थ्य-वाला होता है, अनन्त ज्ञान और सामर्थ्य-वाला कदापि नहीं हो सकता। आज तक कोई भी योगी ईश्वरकृत सृष्टि-नियम (आँख से देखना और कान से सुनना) को बदलनेवाला न हुआ है, न होगा।

कल्पनान्तर में एक-जैसी सृष्टि

परमात्मा पूर्ण है, उसका ज्ञान भी पूर्ण है, अतः परमात्मा द्वारा निर्मित्त यह सृष्टि भी पूर्ण है। इसमें परिवर्त्तन, परिवर्धन या सुधार की अपेक्षा नहीं होती। कल्प-कल्पान्तरों में परमात्मा विलक्षण सृष्टि (नये-नये मॉडल) नहीं बनाता अपितु जैसी अब है वैसी ही पहले थी और ऐसी ही आगे भी होगी। देखो-

सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्।

परमात्मा पूर्वकल्प के अनुसार ही सूर्य, चन्द्र आदि लोक-लोकान्तरों का निर्माण करते हैं। परमेश्वर के कार्य बिना भूल-चूक के होने से सदा एकरस हुआ करते हैं। जो अल्पज्ञ है और जिसका ज्ञान वृद्धि-क्षय को प्राप्त होता है, उसी के काम में भूल-चूक होती है, ईश्वर के काम में नहीं।

शास्त्रों में अविरोध

कुछ लोगों के मत में सृष्टि-उत्पत्तिक्रम में शास्त्रों में परस्पर विरोध है। ‘तैत्तिरीय उपनिषद्’ के अनुसार सर्वप्रथम आकाश हुआ, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथिवी। ‘छान्दोग्य उपनिषद्’ में अग्न्यादि क्रम से सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन है, ‘ऐतरेय’ में जलादि क्रम से सृष्टि हुई। वेदों में कहीं पुरुष कहीं हिरण्यगर्भादि से, मीमांसा में कर्म, वैशेषिक में काल, न्याय में परमाणु, योग में पुरुषार्थ, सांख्य में प्रकृति और वेदान्त में ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति मानी है।

यह विरोध-सा प्रतीत होता है वस्तुतः विरोध है नहीं। जब महाप्रलय होता है तब सृष्टि-उत्पत्ति आकाश आदि क्रमसे होती है। जब आकाश और वायु का प्रलय नहीं होता तब अग्नि आदि क्रम से और जब अग्नि का भी प्रलय नहीं होता तब जल के क्रम से सृष्टि होती है, अर्थात् जिस-जिस प्रलय में जहाँ-जहाँ तक प्रलय होता है वहाँ-वहाँ से सृष्टि की उत्पत्ति होती है।

 पुरुष और हिरण्यगर्भादि नाम परमेश्वर के हैं, अतः यहाँ भी विरोध नहीं है।

दर्शनों में भी विरोध नहीं है अपितु यहाँ एक-दूसरे की पूरकता झलकती है। सृष्टि छह कारणों से बनी है। उन छह कारणों की व्याख्या एक-एक दर्शनकार ने की है, अतः उनमें परस्पर विरोध नहीं है।

सृष्टि-उत्पत्ति का क्रम

नासतो विद्यते भावः- अभाव से भाव नहीं हो सकता, अतः मूल उपादानकारण के बिना सृष्टि-रचना नहीं हो सकती। जब सृष्टि का समय आता है तब परमात्मा प्रकृति के परम सूक्ष्म परमाणुओं को इकट्ठा करता है। परमाणुओं के उस संघात का नाम, जो परम सूक्ष्म प्रकृतिरूप कारण से कुछ स्थूल होता है, महतत्त्व है। महतत्त्व से जो कुछ स्थूल होता है उसका नाम अहङ्कार, अहङ्कार से भिन्न-भिन्न पाँच सूक्ष्मभूत, श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, ध्राण- पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा- पाँच कर्मेन्द्रियाँ और ग्यारहवाँ मन- ये कुछ स्थूल उत्पन्न होते हैं। उनसे नाना प्रकार की औषधियाँ, वृक्ष आदि, उनसे अन्न, अन्न से वीर्य, वीर्य से शरीर होता है।

आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि

आदि सृष्टि मैथुनी नहीं होती। जब परमात्मा स्त्री-पुरुषों के शरीर बनाकर उनमें जीवन का संयोग कर देता है तदन्तर मैथुनी सृष्टि चलती है।

सृष्टि का आरम्भ तथा क्रम

पहले पृथिवी आदि की रचना हुई तत्पश्चात् मनुष्य आदि की उत्पत्ति हुई, क्यों कि यदि पृथिवी न होती तो मनुष्य कहाँ उत्पन्न होता और वनस्पति आदि के बिना उसका पालन-पोषण भी कैसे होता?

सृष्टि के आदि में एक नहीं अपितु अनेक मनुष्य उत्पन्न हुए थे जिन-जिन जीवों के कर्म अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न होने के थे, उन्हें परमात्मा ने सृष्टि के आदि में जन्म दिया। सृष्टि में देखने से भी निश्चित होता हैकि मनुष्य अनेक माता-पिता के सन्तान हैं।

आदि सृष्टि के आरम्भ में युवा

आदि सृष्टि में जो मनुष्य उत्पन्न हुए वे सब युवावस्था में उत्पन्न हुए थे, क्यों कि यदि बालक उत्पन्न होते तो उनका पालन-पोषण कौन करता? यदि वृद्धावस्था में उत्पन्न होते तो उनकी सन्तति आगे न चल सकती । अब पाश्चात्य विद्वानों ने भी इस बात को स्वीकार कर लिया है। डा॰ क्लार्क ने लिखा है- Man aappeared able to think, walk and defand himself.

सृष्टि प्रवाह से अनादि

 यह सृष्टि प्रवाह से अनादि है। इस सृष्टि का न तो कभी प्रारम्भ हुआ और न अन्त होगा, जैसे दिन के पूर्व रात और रात के पूर्व दिन तथा दिन के पीछे रात और रात के पीछे दिन बराबर चला आता है, इसीप्रकार सृष्टि के पूर्व प्रलय और प्रलय के पूर्व सृष्टि तथा सृष्टि के पीछे प्रलय और प्रलय के पीछे सृष्टि- यह चक्र अनादिकाल से चला आ रहा है। इस चक्र का न आदि है और न अन्त, परन्तु जैसे दिन और रात का आरम्भ और अन्त देखने में आता है, उसी प्रकार सृष्टि और प्रलय का आदि अन्त होता रहता है।

कर्मानुसार-जन्म

ईश्वर ने किन्हीं जीवों को मनुष्य जन्म, किन्हीं को सिंहादि क्रूर जन्म, किन्हीं कोहिरण, गाय आदि पशु, किन्हीं को वृक्षादि तथा किन्हीं को कृमि-कीट-पतङ्ग आदि जन्म दिये हैं, इससे परमात्मा में पक्षपात नहीं आता, क्योंकि परमात्मा ने ये जन्म उन जीवों के पूर्व सृष्टि में किये कर्मों के अनुसार दिये हैं। यदि बिना कर्मों के जन्म देता तो पक्षपाती होता।

मनुष्य सृष्टि का आदि स्थान

मनुष्यों की आदि त्रिविष्टप अर्थात तिब्बत में हुई। आदि सृष्टि में एक ही मनुष्यजाति थी। कालान्तर में इनमें आर्य और दस्यु दो भेद हो गये। जो श्रेष्ठ थे वे आर्य, विद्वान् अथवा देव कहलाये और जो दुष्ट और मुर्ख थे वे दस्यु अर्थात् डाकू कहलाये।

जब आर्यों और दस्युओं में लडाई-झगडा रहने लगा तब आर्यलोग भारत भूमि को भूगोल में सर्वोत्तम जानकर यहाँ आ बसे। इसी से इस देश का नाम आर्यावर्त्त हुआ।

आर्यावर्त्त की सीमा

उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पूर्व और पश्चिम में समुद्र तथा सरस्वती, पश्चिम में अटक नदी, पूर्व में दृषद्वती=ब्रह्मपुत्रा तक जो फैला हुआ है, दूसरे शब्दों में हिमालय की मध्य रेखा से दक्षिण में रामेश्वरपर्यन्त विन्ध्याचल के भीतर जितने देश हैं उन सबको आर्यावर्त्त कहते हैं। आर्यों के आगमन से पूर्व इस देश में न तो और कोई लोग बसते थे और न इस देश का और कोई नाम था। आर्यलोग सृष्टि के आदि में कुछ काल पश्चात् तिब्बत से आकर इसी देश में बसे।

आर्य बाहर से नहीं आये

यह कहना कि आर्य लोग ईरान से यहाँ आये और यहाँ की जङ्गली जातियों कोल, भील, द्रविड आदि को मारकर यहाँ बस गये सर्वथा गप्प है। आर्यों से पहले यहाँ कोई नहीं रहता था यदि रहता था तो इस देश का नाम क्या था? इक्ष्वाकु से लेकर कौरव-पाण्डव तक भूगोल में सर्वथा आर्यों का राज्य और वेदों का प्रचार था।

स्वराज्य- महिमा

एक समय था जब समस्त भू मण्डल में आर्यों का चक्रवर्त्ती राज्य था, परन्तु अब अभाग्योदय से और आर्यों के आलस्य- प्रमाद तथा परस्पर के विरोध से अन्य देशों पर राज्य करने की कथा ही क्या, किन्तु आर्यावर्त्त में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्यैस समय नहीं है। जो कुछ है वह भी विदेशियों से पादाक्रान्त हो रहा है। जब दुर्दिन आता है तब देशवासियों को अनेक प्रकार केदुःख भोगने पडते हैं। कोई कितना ही करे जो स्वदेशी राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मतमतान्तर के आग्रह रहित, अपने और पराये का पक्षपात शून्य, प्रजा पर पिता-माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ भी विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायी नहीं होता।

सृष्टि-उत्पत्ति का समय

इस सृष्टि को उत्पन्न हुए एक अरब छियानवे करोड, आठ लाख, तरेपन हज़ार वर्ष हो गये हैं। इतना ही समय वेद को उत्पन्न हुए हो गया है।

पृथिवी का धारण

इस पृथिवी का धारण कौन करता है? कोई कहता है कि पृथिवी सहस्त्र फनवाले साँप के सिर पर खडी है, कोई कहता है कि यह बैल के सींगों पर ठहरी हुई है। इसी प्रकार अन्य मतवादी भी भिन्न-भिन्न वस्तुओं पृथिवी का आधार मानते हैं, परन्तु ये सभी विचार भ्रामक एवं मिथ्या हैं। यदि पृथिवी साँप और बैल के उपर स्थित है तो साँप और बैल के जन्म से पूर्व यह किसपर ठहरी हुई थीऔर साँप तथा बैल किसपर ठहरे हुए हैं? जो लोग शेष के फन पर पृथिवी का स्थिर होना मानते हैं वे शेष के वास्तविक अर्थ को न जानकर भ्रम में पडे हैं। शेष का अर्थ है ‘बाकी’। परमात्मा उत्पत्ति और प्रलय से बाकी अर्थात् पृथक् रहता है, इसी से उसे शेष कहते हैं। उसी परमात्मा के आधार पर यह पृथिवी ठहरी हुई है। किसी कवि ने ‘शेषाधारा पृथिवी’ ऐसा कहा होगा कि पृथिवी शेष के आधार पर है। किसी ने भ्रमवश शेष का अर्थ सर्प कर दिया। ॠग्वेद में कहा है- ‘सत्येनोत्तभिता भूमिः’- जो त्रैकाल्याबाध्य, जिसका कभी नाश नहीं होता उस परमात्मा ने भूमि, आदित्य=सूर्य और सब लोकों को धारण किया हुआ है।

शेष की भाँति किसी ने ‘अनड्वान् दाधार पृथिवीमुत द्याम्’- इस मन्त्र में अनड्वान् को बैल समझकर पृथिवी को बैलों के सींग पर स्थित मान लिया। यहाँ अनड्वान् का अर्थ परमात्मा ही है, क्योंकि वे ही संसाररूपी गाडी को खेंचते हैं। वस्तुतः ‘स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमाम्’ वह परमात्मा ही इस द्युलोक, अन्तरिक्ष और पृथिवीलोक को धारण कर रहे हैं।

पृथिवी आदि लोकों का भ्रमण

ये पृथिवी आदि सभी लोक स्थिर न होकर गति में हैं। वेद में कहा है-

आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन् मातरं पुरः।                                         पितरं च प्रयन्त्स्वः॥      -यजुः-3।6

जल सहित यह पृथिवी सूर्य के चारों ओर घूमती है। सूर्य पृथिवी के चारों ओर नहीं घूमता अपितु अपनी परिधि में घूमता है। यदि सूर्य अपनी परिधि में न घूमता तो एक राशि से दूसरी राशि में गति न करता।

सूर्य प्रकाशक और चद्रमा आदि प्रकाश्य हैं

एक ब्रह्माण्ड में एक सूर्य प्रकाशक और दूसरे सब लोक-लोकान्तर प्रकाश्य हैं। वेद में कहा है- ‘दिवि सोमो अधिश्रितः’- जैसे चन्द्रलोक सूर्य से प्रकाशित होता है वैसे ही पृथिव्यादि लोक भी सूर्य के प्रकाश से ही प्रकाशित होते हैं।

चन्द्र और तारा आदि में मनुष्य सृष्टि और वैदिक ज्ञान

पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्र, नक्षत्र और सूर्य- इनका नाम वसु है, क्योंकि इन्हीं में सब पदार्थ और प्रजा बसती है और ये ही सबको बसाते हैं- ऐतेषु हीद\ँ सर्वं वसु हितमेते हीद\ँ सर्वं वासयन्ते। जब पृथिवी के समान सूर्य, चन्द्र, और नक्षत्र वसु हैं तब उनमें इस प्रकार की प्रजा होने में क्या सन्देह? इन सबलोक-लोकान्तरों में आकृति का थोडा-बहुत भेद सम्भव है, परन्तु जिस जाति की जैसी सृष्टि इस देश में है उस जाति की वैसी ही सृष्टि अन्य लोकों में भी है। जिन वेदों का प्रकाश इस लोक में है उन्हीं वेदों का प्रकाश अन्य लोकों में भी है। जैसे एक राजा की राज्य-व्यवस्था, नीति सब देशों में समान होती है, उसी प्रकार राजराजेश्वर परमात्मा की वेदोक्त नीति अपने-अपने सृष्टिरूप सब राज्यों में एक सी है।

इति अष्टमः समुल्लासः सम्पूर्णः ॥8॥