Navam Samullas

नवम-समुल्लासः

विद्या-अविद्या, बन्ध और मोक्ष

विद्या और अविद्या

 जो मनुष्य विद्या और अविद्या के स्वरूप को साथ-साथ जनता है वह अविद्या अर्थात् कर्मोपासना से मृत्यु को तरकर विद्या अर्थात् ज्ञान से मोक्ष को प्राप्त होता है।

योगदर्शन के अनुसार अनित्य को नित्य, अपवित्र को पवित्र, दुःख को सुख और अनात्मा को आत्मा समझना अविद्या है। इसके विपरीत अनित्य में अनित्य और नित्य में नित्य, अपवित्र में अपवित्र और पवित्र में पवित्र, दुःख में दुःख तथा सुख में सुख, अनात्मा में अनात्मा और आत्मा में आत्मा काज्ञान होना विद्या है।

कर्म और उपासना अविद्या इसलिए है कि यह बाह्य और अन्तर क्रिया विशेष है ज्ञान विशेष नहीं। बिना शुद्धकर्म और परमेश्वर की उपासना के कोई भी मृत्यु-दुःख से पार नहीं हो सकता । पवित्र कर्म, पवित्रोपासना और पवित्र ज्ञान से ही मुक्ति और अपवित्र मिथ्याभाषणादि कर्म, पाषाणमूर्त्त्यादि की उपासना और मिथ्या ज्ञान से बन्ध होता है। अधर्म और अज्ञान में फँसा हुआ जीव ही बद्ध है।

बन्ध और मोक्ष स्वभाव से या निमित्त से

 बन्ध और मोक्ष स्वभाव से न होकर निमित्त से होते हैं। यदि बन्ध और मोक्ष स्वाभाविक हों तो इनकी निवृत्ति कभी भी हो ही नहीं सकती।

जीव ब्रह्म नहीं

जीव ब्रह्म नहीं है, क्योंकि जीव अल्पज्ञ और ब्रह्म सर्वज्ञ है। अल्पज्ञता के कारण जीव बन्धन में आता है। जीव कर्मों का साक्षी नहीं है अपितु कर्मों का भोक्ता है। शरीर, इन्द्रिय, अन्तःकरण, प्राण और मन- ये सभी जड हैं। शीतोष्ण तथा भूख-प्यास का अनुभव चेतन आत्मा कि ही होता है। यदि भूख-प्यास आदि शरीर के धर्म होते तो मृतक शरीर को भूख-प्यास लगती । अतः आत्मा साक्षी नहीं, कर्त्ता-भोक्ता है। साक्षी तो अद्वितीय परमात्मा है ‘जीव-ब्रह्म  का प्रतिबिम्ब है’ यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि प्रतिबिम्ब साकार का साकार में होता है। ब्रह्म के निराकार और सर्वव्यापक होने से उसका प्रतिबिम्ब नहीं हो सकता। यदि सर्वव्यापक ब्रह्म अन्तःकरणों में प्रकाशमान होकर जीव हो जाता है तो उसमें भी सर्वज्ञादि गुण होने चाहिएँ । जीव अल्पज्ञ ही है सर्वज्ञ नहीं, अतः जीव ब्रह्म नहीं हो सकता । जीव और संसार को अध्यारोपमात्र समझना भी ठीक नहीं, क्योंकि जब ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं तो क्या ब्रह्म ही अपने में जगत् की झूठी कल्पना करेगा? परन्तु जीव और प्रकृति भी अनादि हैं। जीव अल्पज्ञता के कारण प्रकृति के विषयों में फँसकर बन्ध का अनुभव करते हैं।              

मुक्ति का अर्थ और मुक्ति के साधन

मुक्ति का अर्थ है दुःखों से छुटकर सुख को प्राप्त होना और ब्रह्म में रहना। यह मुक्ति परमेश्वर की आज्ञा पालने, अधर्म,  अविद्या, कुसङ्ग, कुसंस्कार, बुरे व्यसनों से अलग रहने और सत्य-भाषण, परोपकार, व्द्या, पक्षपातरहित न्याय, धर्म की वृद्धि करने, परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अर्थात् योगाभ्यास करने, विद्या पढने-पढाने और धर्म से पुरुषार्थ कर ज्ञान की उन्नति करने- इत्यादि उत्तम साधनों के करने से होती है।

मुक्त जीव की अवस्था

मुक्ति में जीव का लय नहीं होता, क्योंकि ब्रह्म में लय होना समुद्र में डूब मरने के समान है। वह विद्यमान रहता है और स्वेच्छाचारी होकर बिना रुकावट आनन्दपूर्वक सर्वत्र विचरता है। मुक्ति में जीव का स्थूल शरीर नहीं होता तो भी वह अपने सत्य संकल्प आदि स्वाभाविक गुण और सामर्थ्य से सुख एवं आनन्द का अनुभव करता है। जब वह सुनना चाहता है तब श्रोत्र, जब स्पर्श करना चाहता है तब त्वचा, देखने के संकल्प से चक्षु, संकल्प-विकल्प करते समय मन आदि हो जाते हैं। मुक्ति में संकल्पमात्र शरीर होता है। यह मुक्त जीव अपनी शक्ति से सब आनन्द भोग लेता है।

मुक्ति का कार्यक्रम

मुक्तावस्था में जीव अत्यन्त व्यापक ब्रह्म में स्वच्छन्द गूमता, शुद्ध ज्ञान से सब सृष्टि को देखता, अन्य मुक्तों के साथ मिलता तथा सृष्टि-विद्या को क्रम से देखता हुआ सब लोक-लोकान्तरों में, अर्थात् जितने ये लोक प्रत्यक्ष दीखते हैं तथा जो नहीं दीखते उन सब में घूमता है। जिस जीवात्मा का जितना ज्ञान अधिक होता है मुक्ति में उसको उतना ही आनन्द भी अधिक आता है। मुक्ति में जीवात्मा के निर्मल होने से पूर्ण ज्ञानी होकर उसको सब सन्निहित पदार्थों का भान यथावत् होता है। यही सुख विशेष स्वर्ग और विषय-तृष्णा में फँसकर दुःखविशेष भोग करना नरक कहाता है।  

मुक्ति से पुनरावृत्ति=लौटना

कुछ लोग ‘न च पुनरावर्तते न च पुनरावर्तते’ [छान्दोग्य उपनिषद्] ‘अनावृत्तिः शब्दादनावृत्तिः शब्दात्’ [वेदान्तदर्शन] और यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम’ [गीता] इन प्रमाणों के आधार पर ऐसा कहते हैं कि मुक्ति के पश्चात् जीव पुनः संसार में नहीं आता, परन्तु यह अर्थ ठीक नहीं है। उनका ठीक अर्थ यही है कि मुक्ति का परन्तकाल पूर्ण होने से पूर्व ये नहीं लौटते। महाकल्प के पश्चात तो लौटते ही हैं। वेद में कहा है-

अग्नेर्वयं प्रथ्मस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम।                                 स नो मह्या अदितये पुनर्दात् पितरं च दृशेयं मातरं च॥                                –ॠ॰ 1।24।2

हम प्रकाशस्वरुप, अनादि तथा सदा मुक्त परमात्मा का नाम पवित्र जानें जो हमें मुक्ति में आनन्द भुगाकर पृथिवी में पुनः माता-पिता के द्वारा जन्म देकर माता-पिता का दर्शन कराता है।

इसप्रमाण से स्पष्ट हैकि मुक्ति के पश्चात् भी जीव लौटता है।

न्यायदर्शन में कहा है- ‘तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः’-जीव के दुःख का अत्यन्त विच्छेद होना ही मुक्ति है। यहाँ अत्यन्त का अर्थ अनन्त नहोकर ‘बहुत’ ही है जैसे ‘अत्यन्त दुखं चास्य वर्तते’-इस मनुष्य को अत्यन्त दुःख है। इसका तात्पर्य बहुत दुःख से ही है। उक्त सूत्र में भी अत्यन्त शब्द का अर्थ ‘बहुत’ ही है।

मुक्ति से लौटने में युक्तियाँ

मुक्ति से पुनरावृत्ति में निम्न युक्तियाँ हैं-

1-  जीव का सामर्थ्य, शरीरादि पदार्थ और साधन परिमित हैं, पुनः उनका फल अनन्त कैसे हो सकता है? अनन्त आनन्द को भोगने का असीम सामर्थ्य, कर्म और साधन जीवों में नहीं, इसलिए अनन्त सुख नहीं भोग सकते। जिनके साधन अनित्य हैं उनका फल नित्य कभी नहीं हो सकता ।

2-  यदि मुक्ति से लौटकर कोई भी जिवात्मा संसार में ना आये तो शनैः-शनैः संसार का उच्छेद अर्थात् जीवों की समाप्ति हो जाएगी।                                यदि यहाँ यह कहा जाए कि जितने जीव मिक्त होते हैं ईश्वर उतने ही नये जीव बना लेता है तो भी ठीक नहीं। ऐसा होने पर जीव अनित्य हि जाएँगे, क्योंकि जिसकी उत्पत्ति होती है उसका नाश भी अवश्य होता है। मुक्ति पाकर भी वे नष्ट हो जाएँगे और मुक्ति अनित्य हो जाएगी ।

3-  यदि मुक्ति से लौटते नहीं तो मुक्ति के स्थान म्त बहुत-सा भीड-भडक्का हो जाएगा, क्योंकि वहाँ आगम अधिक और व्यय कुछ भी न होने से बढती का पारावार न रहेगा।

4-  सुख का अनुभव सापेक्ष अनुभव है। दुःख के अनुभव के बिना सुख का अनुभव नहीं हो सकता। जैसे कटु न हो तो मधुर क्या और मधुर न तो हो कटु क्या कहावे, क्योंकि एक स्वाद के एकरस के विरुद्ध होने से दोनों की परीक्षा होती है। जैसे कोई मनुष्य मीठा-ही-मीठा खाता जाए तो उसको वैसा सुख नहीं होता जैसा सब प्रकार के रसों को भोगनेवाले को होता है। 

5-  यदि ईश्वर अन्तवाले कर्मों का अनन्त फल देवे तो उसका न्याय नष्ट हो जाए। जो जितना भार उठा सके उसपर उतना ही धरना बुद्धिमानों का काम है। जैसे एक मन भार उठानेवाले के सिर पर दस मन भार धरने से भार धरनेवाले की निन्दा होती है वैसे अल्पज्ञ, अल्प सामर्थ्यवाले जीव पर अनन्त सुख का भार धरना ईश्वर के लिए ठीक नहीं।

6-  यदि परमेश्वर नये जीव उत्पन्न करता है तो जिस कारण से वे जीव उत्पन्न होते हैं वह कारण चूक जाएगा, क्योंकि चाहे कितना भी बडा कोश हो जिसमें व्यय है और आय नहीं उसका कभी-न-कभी दिवाला निकल ही जाएगा।

7-  यदि मुक्ति से पुनरावृत्ति नहीं होती तो वह जन्म-कारागार के समान हो जाएगी, बस इतना ही अन्तर रहेगा कि वहाँ मजदूरी नहीं करनी पडती।

मुक्ति के लिए उपाय आवश्यक

मुक्ति से भी लौटना पडता है, इसलिए मुक्ति जन्म-मरण के सदृश नहीं है, क्योंकि जब तक 36,000 बार सृष्टि उत्पत्ति और प्रलय होती है, इतने समय पर्यन्त जीवों का मुक्ति के आनन्द में रहना और दुःखी  न होना क्या छोटी बात है? यह समय कोई कम है कि इतने काल तक निरन्तर सुख में रहने के लिए प्रयत्न न किया जाए। जब आज खाते- पीते हैं और कल भूख लगने वाली है फिर भी उपाय किया ही जाता है। ज भूख, प्यास, धन, राज्य, प्रतिष्ठा, स्त्री, सन्तान आदि के लिए उपाय करना आवश्यक हैतो मुक्ति केलिए क्यों न करना? जैसे मरना आवश्यक है फिर भी जीवन का उपाय किया जाता है, वैसे ही मुक्ति से लौटकर जन्म में आना है तथापि उसका उपाय करना अत्यावश्यक है।

मुक्ति के साधन

जो मुक्ति चाहे जीवनमुक्त बनेजिन मिथ्या-भाषणादि पाप-कर्मों का फल दुःख है उनको छोड सुख रूप फल को देनेवाले सत्य-भाषणादि धर्माचरण अवश्य करे। जो कोई दुःख को छुडाना और सुख को प्राप्त होना चाहे वह अधर्म को छोडकर धर्म अवश्य करे, क्योंकि दुःख का पापाचरण और सुख का धर्माचरण मूल कारण है । मुक्ति के लिए साधन चतुष्ट्य का अनुष्ठान करना चाहिए। यथा-

1-  विवेक- सत्पुरुषों के संग से विवेक अर्थात् सत्यासत्य, धर्माधर्म, कर्त्तव्याकर्त्तव्य का निश्चय अवश्य करें विवेक द्वारा यह भी जानें कि आत्मा अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय- इन पाँच कोशों, जागृत्, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय- इन चार अवस्थाओं, स्थूल, सूक्ष्म और कारण- इन तीन शरीरों से पृथक् है।

2-  वैराग्य- विवेक से जिस सत्यासत्य को जाना हो उसमें से सत्याचरण का ग्रहण  और असत्याचरण का त्याग करना वैराग्य है। दूसरे शब्दों में पृथिवी से लेकर परमेश्वर परयन्त पदार्थों के गुण-कर्म-स्वभावों को जानकर परमात्मा की आज्ञा का पालन और उपासना में तत्पर होना, उसके विरुद्ध न चलना, सृष्टि से उपकार लेना वैराग्य कहलाता है।

3-  षट्क सम्पत्ति- षट्क सम्पत्ति का अर्थ है- छह प्रकार के कर्म करना-

(क) शम- अपने आत्मा और अन्तःकरण को अधर्माचरण से हटाकर धर्माचरण मेंसदा प्रवृत्त रखना।

(ख) दम- श्रोतादि इन्द्रियों और शरीर को व्यभिचार आदि बुरे कर्मों से हटाकर जितेन्द्रियत्वादि शुभ कर्मों में प्रवृत्त रखना।

(ग)  उपरति- दुष्ट कर्म करनेवाले पुरुषों से सदा दूर रहना।

(घ)  तितिक्षा- निन्दा-स्तुति, हानि-लाभ में हर्ष-शोक को छोडकर मुक्ति के साधनों में सदा लगे रहना।

(ङ)  श्रद्धा- वेदादि सत्य शास्त्र और इनके बोध से पूर्ण आप्त विद्वान्, सत्योपदेशक महाशयों के वचनों पर विश्वास करना।

(च)  समाधान- चित्त में एकाग्रता।

4-  मुमुक्षुत्व- जैसे क्षुधा-तृषातुर को सिवाय अन्न-जल के दूसरा कुछ भी अच्छा नहीं लगता वैसे बिना मुक्ति के साधन दूसरे में प्रीति न होना।

अनुबन्ध च्तुष्टय- साधन चतुष्टय के पश्चात चार अनुबन्धों का सेवन करना होता है

1-  अधिकारी- जो उपर्युक्त चार साधनों से युक्त पुरुष होता है, वही मोक्ष का अधिकारी होता है।

2-  ब्रह्म की प्राप्तिरूप मुक्ति को प्रतिपाद्य और वेदादि शास्त्रों को प्रतिपादक समझकर उन्हें अन्वित करना, उन्हीं का अध्ययन आदि करना।

3-  विषयी- सब शास्त्रों का प्रतिपादन विषय है ब्रह्म। उस ब्रह्म की प्राप्तिरूप विषयवाले पुरुष का विषयी है।

4-  प्रयोजन- सब दुःखों की निवृति और परमानन्द को प्राप्त होकर मुक्ति का सुख होना।  -ये चार अनुबन्ध कहलाते हैं।

   श्रवण चतुष्टय- तदन्तर श्रवण चतुष्टय का अनुष्ठान करना होता है-

1-  श्रवण- जब कोई विद्वान् उपदेश करे तब शान्त होकर और ध्यान देकर सुनना, ब्रहमविद्या के सुनने में विशेष ध्यान देना, क्योंकि यह सब विद्याओं में सूक्ष्म है।

2-  मनन- सुनने के पश्चात् एकान्त देश में बैठकर सुने हुए का विचार करना, जिस बात में शङ्का हो उसे पुनः पूछना और सुनते समय भी वक्ता और श्रोता उचित समझें तो पूछना और समाधान करना।

3-  निदिध्यासन- जब सुनने और मनन करने से निःसन्देह हो जाए तब समाधिस्थ  होकर उस बात को देखना-समझना कि वह जैसा सुना और विचारा था वैसा ही है वा नहीं।

4-  साक्षात्कार- जैसा पदार्थ का स्वरूप, गुण स्वभाव हो वैसा यथातथ्य जान लेना।

यह श्रवण चतुष्टय कहाता है।

सदा तमोगुण अर्थात्, क्रोध, मलीनता, आलस्य, प्रमाद आदि: रजोगुण अर्थात् ईर्ष्या, द्वेष, काम, अभिमान, विक्षेपविशेष आदि दोषों से अलग होके सत्त्व अर्थात् शान्त-प्रकृति, पवित्रता, विद्या, विचार आदि गुणों को धारण  करे। सुखी जनों से मित्रता करें, दुःखी जनों पर दया करें, पुण्यात्माओं को देखकर हर्षित हो और दुष्ट-आत्माओं से न प्रीति करे न वैर रखे। ऐसा पुरुष ही जीवनमुक्त होता है। मुमुक्षु को चाहिए कि नित्यप्रति न्युन-से न्युन दो घण्टा पर्यन्त ध्यान अवश्य करे, जिससे भीतर के मन आदि पदार्थ साक्षात् हों।

पञ्च क्लेशों की निवृति

क्लेश पाँच हैं। अनित्य को नित्य, अपवित्र को पवित्र, दुःख को सुख और अनात्मा को आत्मा समझना ‘अविद्या’ रूप पहला क्लेश है।

बुद्धि को आत्मा से भिन्न न समझना ‘अस्मिता’ रूप दूसरा क्लेश है।

सुख में प्रीति ही ‘राग’ नामक तीसरा क्लेश है।

दुःख में अप्रीति ही ‘द्वेष’ नामक चौथा क्लेश है, और

मृत्युदुःख से त्रास ही ‘अभिनिवेश’ नामक पाँचवाँ क्लेश है।

योगाभ्यास और विज्ञान द्वारा इन पाँच क्लेशों को छुडाकर, ब्रह्म को प्राप्त होके मुक्ति के परमानन्द को भोगना चाहिए।

मतवादियों की मुक्ति का स्वरूप

जैनी लोग मोक्षशिला- शिवपुर में जाके चुपचाप बैठे रहना, ईसाई चौथे आसमान- जिसमें विवाह, लडाई, बाजे-गाजे, वस्त्र आदि धारण से आनन्द भोगना, वैसे ही मुसलमान सातवें आसमान, वाममार्गी श्रीपुर, शैव कैलाश, वैष्णव वैकुण्ठ गोकुलिये गुसाईं गोलोक आदि में जाके उत्तम स्त्री, अन्न-पान, वस्त्र, स्थान आदि को प्राप्त होकर आनन्द में रहने को मुक्ति मानते हैं। पौराणिक लोग सालोक्य- ईश्वर के लोक में निवास, सानुज्य- छोटे भाई के सदृश ईश्वर के साथ रहना, सायुज्य- ईश्वर से संयुक्त हो जाना। सामीप्य- सेवक के समान ईश्वर के समीप रहना- ये चार प्रकार की मुक्ति मानते हैं

वस्तुतः मोक्षशिला, शिवपुर, चौथे अथवा सातवें आसमान पर अथ्वा गोलोक आदि किसी स्थान में पहुँचकर शान्त एवं ऐश्वर्यमय जीवन बीताने का नाम मोक्ष नहीं है। ऐश्वर्य सम्पन्न एवं भोगमय जीवन में रोग अवश्यम्भावी है। रोगों को साथ वृद्धावस्था भी आएगी ही। यदि स्थानविशेष में रहना ही मुक्ति हो तो उन स्थानों से पृथक् होते ही मुक्ति समाप्त हो जाएगी। मुक्ति तो यही है कि जहाँ इच्छा हो वहाँ विचरे, कहीं अटके नहीं, कोई भय, शङ्का और दुःख न हो। पौराणिकों की मुक्ति तो कीट-पतङ्ग और पशु आदि को भी स्वयं प्राप्त है। ये सब लोक ईश्वर के हैं, इन्हीं में सब जीव रहते हैं, इसलिए सालोक्य मुक्ति अनायास प्राप्त है। ईश्वर सर्वत्र व्याप्त होने से सब उसके समीप हैं इसलिए सामीप्य मुक्ति स्वतः सिद्ध है। जीव ईश्वर से सब प्रकार छोटा और चेतन होने से स्वतः बन्धुवत् है अतः सानुज्य मुक्ति भी बिना प्रयत्न के सिद्ध है। सब जीव सर्वव्यापक परमात्मा में व्याप्त होने से संयुक्त है, इससे सायुज्य मुक्ति भी स्वतः सिद्ध है।

वदान्ती ब्रह्म में लय होने को मुक्ति मानते हैं। यह सिद्धान्त भी ठीक नहीं, क्योंकि जीव का विनाश नहीं होता और अपने विनाश के लिए कोई प्रयत्न भी नहीं करेगा।

पूर्व जन्म की स्मृति न होने के कारण

जन्म अनेक हैं, परन्तु मनुश्य को पूर्वजन्म की बातोंका स्मरण नहीं रहता, इसके अनेक कारण हैं-

1-  जीव अल्पज्ञ हैं, त्रिकालदर्शी नहीं, अतः स्मरण नहीं रहता। जिस मन से ज्ञान प्राप्त होता है वह भी एकसमय में दो ज्ञान नहीं कर सकता । पूर्वजन्म की तो बात ही क्या इस जन्म की बातें भी स्मरण नहीं रहतीं।

2-  पूर्वजन्म की बातें स्मरण नहीं रहतीं इसी से जीव सुखी है नहीं तो सब जन्मों के दुःखों को स्मरण कर दुःखित होकर मर जाता।

3-  संसार में एक स्थान पर राज, धन, बुद्धि और विद्या है, दूसरे स्थान पर दारिद्र्य और मूर्खता है। सुख-दुःख को देखकर ही हमें पूर्वजन्म का ज्ञान कर लेना चाहिए। यदि पूर्वजन्म को न माना जाए तो परमात्मा पक्षपाती हो जाएगा।

कर्मानुसार जन्म

परमात्मा जीवों के कर्मानुसार ही उन्हें फल प्रदान करता है। यदि बिना हमारे कर्मों के स्वेच्छा से फल दे तो धर्म का फल मिलने में सन्देह होगा। परिणामस्वरूप पापों की वृद्धि और धर्म का क्षय हो जाएगा, अतः यही सत्य सिद्धान्त है कि परमात्मा पूर्वजन्म के पाप-पुण्यों के अनुसार वर्त्तमान जन्म और वर्त्तमान जन्म के कर्मानुसार भविष्यत् जन्म प्रदान करता है।

जीव अपने कर्मों के अनुसार परमात्मा की व्यवस्था में कभी पुरुष के शरीर में जाता है, कभी स्त्री के शरीर में तथा कभी पशु, कीट और पतङ्ग आदि के शरीर में जाता है। जब पाप बढ जाता है और पुण्य न्यून हो जाता है तब मनुष्य का जीव पशु आदि नीच शरीरों में जाता है, जब धर्म अधिक और अधर्म न्यून होता है तब देव अर्थात् विद्वानों का शरीर मिलता है, जब पाप और पुण्य बराबर होते हैं तब साधारण मनुष्य का जन्म होता है। इन साधारण मनुष्यों में भी जो दुःख-सुख की मात्रा का अन्तर दिखाई देता है वह उनके कर्मों के उत्तम, मध्यम और निकृष्ट होने के कारण है। जब अधिक पाप का फल पशु आदि के शरीर में भोग लिया जाता है तब पाप और पुण्य के बराबर हो जाने पर जीव पुनः मनुष्य के शरीर में आता है। पुण्यात्मा भी पुण्य के फल भोगकर फिर मध्यस्थ मनुष्य के शरीर में आता है।

इसप्रकार अपने कर्मों के अनुसार परमात्मा की व्यवस्था में बँधा हुआ जीव नाना प्रकार की योनियों में तब तक चक्कर काटता है जब तक वह उत्तम कर्मोपासना का अनुष्ठान कर और ज्ञान को बढाकर मुक्त नहीं हो जाता।                         जब इस जीव के हृदय की अविद्या-अज्ञान रूपी गाँठ कट जाती है, सब संशय छिन्न हो जाते हैं और दुष्ट कर्म क्षय को प्राप्त हो जाते हैं तभी जीव उस परमात्मा में निवास करता है, जोकि अपने आत्मा के भीतर और बाहर व्याप रहा है। अविद्याग्रन्थि के काटने का सम्भव सामान्यतः अनेक जन्मों की अपेक्षा रखता है, अतः मुक्ति एक जन्म में न होकर अनेक जन्मों में होती है। मुक्ति में जीव परमेश्वर में विचरता है, उसका लय=नाश नहीं होता अपितु वह जीव सर्वव्यापक ब्रह्म में स्थित होकर जिस आनन्द की कामना करता है, उसी आनन्द को प्राप्त होता है।

बिना कर्मों का क्या फल मिलता है

जो मनुष्य शरीर से चोरी, पर-स्त्रीगमन व श्रेष्ठों को मारना आदि दुष्कर्म करता है उसको वृक्ष आदि स्थावर का जन्म, वाणी से किये पापों से पक्षी और मृगादि तथा मन से किये दुष्टकर्मों से चाण्डाल आदि का शरीर मिलता है। जो मनुष्य सात्विक हैं वे मध्यम और जो तमोगुणयुक्त होते हैं वे नीच गति को प्राप्त होते हैं। इन गुणों के स्वभावों में न फँस कर गुणातीत बनने का प्रयत्न करना ही मुक्ति का मार्ग है।

मुक्ति के लिए योगमार्ग का आलम्बन आवश्यक है। चित्त की वृत्ति के निरोध का नाम योग है। जब चित्त एकाग्र और निरुद्ध हो जाता है तब द्रष्टा जीवात्मा परमात्मा के स्वरूप में स्थित हो जाता है। यह ब्रह्मनिष्ठ व्यक्ति आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक त्रिविध तापों से ऊपर उठकर मुक्ति को प्राप्त करता है, यही मनुष्य का अत्यन्त पुरुषार्थ है।

इति नवमः समुल्लासः सम्पूर्णः ॥9॥