सप्तम-समुल्लासः ईश्वर और वेद-विषय
1- ईश्वर-विषय
ईश्वर का स्वरूप
ईश्वर दिव्य गुण-कर्म-स्वभाववाला
और विद्यायुक्त है। उस परमात्मा में ही पृथिवी और सूर्य आदि लोक स्थित हैं। वह
आकाश के समान सर्वत्र व्यापक है। ईश्वर एक है, अनेक नहीं। देवों का देव होने से वह
महादेव कहाता है। वही सब जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करनेवाला, न्यायाधीश
एवं अधिष्ठाता है। वह सब जगत् में व्याप्त और सबका नियन्ता है। वह सबसे पूर्व
विद्यमान, सब जगत् का पति तथा सनातन जगत्कारण है। वह सूर्य के समान सब जगत् का
प्रकाशक है। वह न जन्म लेता है न मृत्यु को प्राप्त होता है। वही सब धनों का विजेता
है, सब प्राणियों का पिता है। उस प्रभु की मित्रता में किसी का विनाश नहीं होता।
वह परमात्मा वेदों का प्रकाशक, कर्मफल दाता, सुखस्वरूप, निराकार, न्यायकारी,
दयालु, सर्वशक्तिमान्, सर्वान्तर्यामी तथा जगत् स्वामी है। जो मनुष्य उस परमात्मा
को न जानते, न मानते और न उसका ध्यान करते हैं, वे नास्तिक, मन्दमति सदा दुःखसागर
में डूबे रहते हैं।
ईश्वर की सिद्धि
ईश्वर की सिद्धि में निम्नलिखित
प्रमाण हैं -
1-
ईश्वर प्रत्यक्ष है।
श्रोत्रादि इन्द्रियों के द्वारा जो शब्द आदि का निर्भ्रान्त ज्ञान होता है, उसे
प्रत्यक्ष कहते हैं। इन्द्रिय और मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है, गुणी का नहीं।
जैसे त्वचादि चारों इन्द्रियों से स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का ज्ञान होकर गुणी जो
पृथिवी उसका आत्मायुक्त मन से प्रत्यक्ष किया जाता है, वैसे इस प्रत्यक्ष सृष्टि
में रचना-विशेष एवं ज्ञानादि गुणों के प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष
है। सृष्टि की एक-एक रचना रचयिता का स्मरण कराती है ।
2-
जब आत्मा, मन और मन
इन्द्रियों को किसी विषय में लगाता अथवा चोरी आदि बुरी वा परोपकार आदि अच्छी बात करने का जिस क्षण में आरम्भ करता है
उस समय जीव की इच्छा, ज्ञानादि उसी इच्छित विषय पर झुक जाती है उसी क्षण में आत्मा
के भीतर से बुरे काम करने में भय, शङ्का और लज्जा तथा अच्छे कामों के करने में
अभय, निशङ्कता और आनन्दोत्साह उठता है, वह जीवात्मा की और से नहीं, किन्तु
परमात्मा की ओर से है। इससे भी परमात्मा का अस्तित्व प्रमाणित होता है।
3-
जब जीवात्मा शुद्ध होकर
परमात्मा का विचार करने में तत्पर होता है, उस समय उसे आत्मा और परमात्मा दोनों का
प्रत्यक्ष होता है।
4-
जब परमेश्वर का प्रत्यक्ष
होता है तब अनुमान आदि से परमेश्वर का ज्ञान होने में क्या सन्देह? अनुमानप्रमाण
से भी ईश्वर सिद्ध है। किशी पदार्थ को देखकर दो प्रकार का ज्ञान होता है, एक तो उस
पदार्थ का और दूसरे उस पदार्थ की रचना विशेष को देखकर उसके बनानेवाले का। जैसे
किसी पुरुष को जङ्गल में कोई सुन्दर आभूषण मिला तो विदित हुआ कि वह स्वर्ण का है
और किसी बुद्धिमान कारीगर ने इसे बनाया है। इसी प्रकार नानाप्रकार की रचनावाली
सृष्टि भी अपने रचयिता परमेश्वर को सिद्ध करती है।
ईश्वर की सर्वव्यापकता
ईश्वर सर्वव्यापक है, वह
किसी देश-विशेष में नहीं रहता, क्योंकि यदि एक देश में रहता तो
सर्वान्तर्यामी, सर्वनियन्ता, सबका स्रष्टा, सबका पालक और प्रलयकर्त्ता
नहीं हो सकता। अप्राप्त देश में कर्त्ता की क्रिया का होना असम्भव है, अतः
परमात्मा सर्वव्यापक है।
ईश्वर दयालु एवं न्यायकारी
ईश्वर के गौणिक नामों में
दो नाम दयालु और न्यायकारी भी है। ये नाम परस्पर विरुद्ध से लगते हैं। वस्तुतः
न्याय और दया में कोई भेद नहीं है, क्योंकि न्याय से भी वही प्रयोजन सिद्ध होता है
जो दया से सिद्ध होता है। दन्ड देने का प्रयोजन है कि मनुष्य अपराध करने से बन्द
होकर दुःखों को प्राप्त न हो। दया का प्रयोजन भी “पराये दुःखों को छुडाना” है।
जिसने जैसा और जितना बुरा कर्म किया हो उसको वैसा और उतना ही दण्ड देना न्याय
कहाता है। यदि अपराधी को दण्ड न दिया जाए तो दया का नाश हो जाए, क्योंकि एक अपराधी
डाकू को छोड देने से सहस्त्रों धर्मात्मा पुरुषों को दुःख पहुँचता है, फिर यह दया
क्या हुई? उस डाकू को कारागार में रखकर पाप करने से बचाना डाकू पर तथा अन्य
सहस्त्रों मनुष्यों को पीडा न पहुँचने से उनपर वास्तविक दया प्रकाशित होती है।
देखो ! ईश्वर की पूर्ण दया तो यह है कि उसने जीवों की प्रयोजन-सिद्ध के लिए जगत्
के सकल पदार्थ उत्पन्न करके उसे दान में दे रखे हैं। इससे बढकर और दया क्या हो
सकती है? सुख-दुःख की व्यवस्था, अधिकता और न्युनता से न्याय का फल भी प्रत्यक्ष
दीखता है। इन दोनों में इतना ही भेद है कि जो मन में सबको सुख होने और दुःख छुटने
की इच्छा और क्रिया करता है वह दया और बाह्य चेष्टा अर्थात् बन्धन, छेदन यथावत्
दण्ड देना न्याय कहाता है। दोनों का एक प्रयोजन यह है कि सबको पाप और दुःखों से
पृथक् कर देना।
ईश्वर साकार या निराकार
ईश्वर निराकार है क्योंकि-
1-
यदि ईश्वर साकार होता तो सर्वव्यापक
न होता। जब व्यापक न होता सर्वज्ञत्वादि गुण भी परमात्मा में न घट सकते। परिमित
वस्तु में गुण-कर्म-स्वभाव भी परिमित होते हैं।
2-
परिमित होने पर प्रभु
शीतोष्ण, भूख-प्यास, रोग-दोष, छेदन-भेदन, आदि से रहित नहीं हो सकता।
3-
यदि ईश्वर साकार हो तो उसके
नाक-कान आदि अवयवों को बनानेवाला दूसरा होना चाहिए, क्यों कि जो पदार्थ संयोग से
उत्पन्न होता है उसे संयुक्त करनेवाला निराकार चेतन अवश्य होना चाहिए।
4-
यदि यह कहें कि ईश्वर ने
स्वेच्छा से आप ही अपना शरीर बना लिया तो भी यही सिद्ध हुआ कि शरीर बनाने से पूर्व
वह निराकार था। परमात्मा कभी शरीर धारण नहीं करता, किन्तु निराकार होने से सब जगत्
को सूक्ष्म कारणों से स्थूलाकार बना देता है।
‘सर्वशक्तिमान्’ शब्द का
अर्थ
ईश्वर सर्वशक्तिमान् है,
क्योंकि वह सृष्टि की उत्पत्ति, धारण और प्रलय तथा सब जीवों के पाप-पुण्य की यथायोग्य
व्यवस्था करने में किसी की किञ्चित् भी सहायता नहीं लेता अपितु अपने अनन्त
सामर्थ्य से ही अपना सब कार्य पूर्ण कर लेता है। सर्वशक्तिमान् का अभिप्राय यह
नहीं कि वह प्रकृति के बिना अभाव से ही सृष्टि को उत्पन्न कर दे अथवा सर्वोपरि
होने से वह मनमाना अत्याचार करने लगे। यदि परमात्मा सब-कुछ कर सकता है तो क्या
अपने को मार, अनेक ईश्वर बना, स्वयं अविद्वान्, चोरी, व्यभिचार आदि पाप कर्म कर
सकता और दुःखी भी हो सकता है? कदापि नहीं, अतः सर्वशक्तिमान् शब्द का उपर्युक्त
अर्थ ही ठीक है।
ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना
और उपासना
ईश्वर की स्तुति आदि करने
से वह अपना नियम छोडकर स्तुति-प्रार्थना और उपासना करनेवाले के पापों को क्षमा
नहीं करता, परन्तु इनसे लाभ अवश्य होता है। स्तुति से ईश्वर में प्रीति उत्पन्न
होती है। स्तुतिकर्त्ता ईश्वर के आदर्श गुण-कर्म एवं स्वभाव के अनुसार अपने
गुण-कर्म और स्वभाव को सुधारता है। प्रार्थना करने से जीवन में निरभिमानता आती है,
उत्साह बढता है और परमात्मा की सहायता प्राप्त होती है। उपासना से परब्रह्म से मेल
और उसका साक्षात्कार होता है।
स्तुति के दो प्रकार
स्तुति दो प्रकार की होती है एक सगुण और दूसरी निर्गुण।
जो-जो गुण परमात्मा में विद्यमान हैं उनके द्वारा परमात्मा की स्तुति करना सगुण
स्तुति कहाती है। ‘हे परमात्मन् ! तू सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी एवं
सर्वैश्वर्य सम्पन्न है’– यह परमात्मा की सगुण स्तुति है और ‘हे प्रभो ! तू अजन्मा
है, नस-नाडी के बन्धन से रहित है, राग द्वेषादि
से रहित है’- यह परमात्मा कि निर्गुण स्तुति है। इसका फल यह है कि जैसे परमेश्वर के गुण हैं वैसे गुण-कर्म-स्वभाव अपने भी करना।
जैसे वह न्यायकारी है तो स्तोता भी न्यायकारी बने। जो केवल भाँड के समान परमेश्वर के
गुण कीर्तन करता जाता और अपने चरित्र नहीं सुधारता उसका स्तुति करना व्यर्थ है।
प्रार्थना
किस प्रकार की प्रार्थना करें? ‘हे प्रभो ! तू मुझे आज की
रोटी दे’- ऐसी प्रार्थनाएँ उचित नहीं। वैदिक धर्मी सर्व प्रथम ‘तया मामद्य मेधयाग्ने
मेधाविनं कुरू’ अर्थात् प्रभो ! आप मुझे विद्वान्, ज्ञानी और योगी लोगों की बुद्धि से युक्त करो- कहकर बुद्धि
की याचना करते हुए अपने मस्तिष्क को उत्तम बनाता है। तत्पश्चात् ‘तेजोऽसि तेजोमयि
धेहि’ कहकर वह अपनी भुजाओं को शक्तिशाली बनाने की प्रार्थना करता है, फिर ‘तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु’ इस सूक्ति को
छह बार दोहराता हुआ अपने मन को शिव संकल्पों से युक्त करता है। शिवसंकल्पयुक्त होकर
वह प्रार्थना करता है- ‘अग्ने नय सुपथा राये’ हम सुपथ पर चलते
हुए ही धन का उपार्जन करें। वह यह भी प्रार्थना करता है कि– ‘मा नो वधीः पितरं
मोत मातरम्’ हम अपने माता, पिता, आचार्य एवं बडों का सम्मान करनेवाले बनें और अन्त में यह प्रार्थना
करता है कि– हे प्रभो ! आप मुझे असत् से सन्मार्ग की ओर, अन्धकार से प्रकाश
की ओर एवं मृत्यु से अमृत की ओर ले चलिए।
स्तुति की भाँति प्रार्थनाएँ भी
सगुण और निर्गुण दो प्रकार की होती हैं। यहाँ ‘मुझमें तेज धारण
कीजिए’ आदि विधिमुख प्रार्थनाएँ सगुण प्रार्थनाएँ हैं और मेरे अन्धकार
को दूर कीजिए’- आदि निषेधमुख प्रार्थनाएँ निर्गुण प्रार्थनाएँ हैं। जो मनुष्य जिस बात की प्रार्थना करता है उसको वैसा व्यवहार भी
करना चाहिए। जैसे परमेश्वर से उत्तम बुद्धि के लिए प्रार्थना करे तो उसके लिए जितना
अपने से हो सके उतना प्रयत्न स्वयं भी करना चाहिए। पुरुषार्थ के उपरान्त ही प्रार्थना
करनी योग्य है। ऐसी प्रार्थनाएँ कभी न करें- हे परमेश्वर ! आप मेरे शत्रुओं
का नाश और मुझे ही सबसे बडा और मेरी ही प्रतिष्ठा कीजिए।‘ ऐसी मुर्खता
की प्रार्थना करते-करते कोई ऐसी भी प्रार्थना करेगा – ‘हे परमेश्वर ! आप हमको रोटी
बनाकर खिलाइए, मेरे मकान में झाडू लगाइए, वस्त्र धो दीजिए
और खेती-बाडी भी कीजिए’। जो पुरुषार्थ न करके परमेश्वर के भरोसे बैठे रहते हैं वे महामूर्ख
हैं, क्योंकि
परमात्मा तो हमें ‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत- समाः’- सौ वर्षपर्यन्त
कर्म करने का आदेश देते हैं। सारा संसार और संसार के सभी प्राणी गति में हैं, अतः मनुष्य को
भी गतिशून्य होना ठीक नहीं। परमात्मा पुरुषार्थी की ही सहायता करते हैं। जो कोई ‘गुड मीठा है’ ऐसा कहता है
उसके कहने मात्र से गुड या उसका स्वाद प्राप्त नहीं होता, परन्तु जो उसके
लिए प्रयत्न करता है उसको शीघ्र या बिलम्ब से गुड मिल ही जाता है, अतः प्रार्थना
के साथ पुरुषार्थ आवश्यक है।
उपासना
उपासना का अर्थ समीपस्थ होना है।
अष्टाङ्ग-योग के द्वारा ही परमात्मा के समीपस्थ होना सम्भव है। जो उपासना
आरम्भ करना चाहे उसके लिए यम-नियमों का पालन आवश्यक है। यम पाँच हैं-
तन्नाऽहिंसासत्यास्तेयब्रहमचर्यापरिग्रहा यमाः । -यो॰ 1।30
अहिंसा- उपासक किसी से वैर न
रखे, सर्वदा सबसे प्रीति करे।
सत्य- सत्य बोले, मिथ्या कभी
न बोले।
अस्तेय- चोरी न करे, सत्य
व्यवहार करे।
ब्रह्मचर्य- जितेन्द्रिय हो,
लम्पट न हो।
अपरिग्रह- निरभिमानी हो,
अभिमान कभी न करे।
ये पाँच प्रकार के यम
उपासना-योग के प्रथम अङ्ग हैं।
नियम भी पाँच हैं-
शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ॥ -यो॰ 1।32
शौच- उपासक राग-द्वेष छोडकर
भीतर से और जलादि से बाहर से पवित्र रहे।
सन्तोष- धर्म से पुरुषार्थ
करते हुए लाभ में प्रसन्न और हानि में अप्रसन्न न होना।
तपः- प्रसन्न होकर तथा आलस्य
छोड सदा पुरुषार्थ करना, सदा दुःख-सुख का सहन और धर्म ही का अनुष्ठान करे, अधर्म का नहीं।
स्वाध्याय- सदा सत्य
शास्त्रों को पढे-पढावे, सत्पुरुषों का सङ्ग करे। परमात्मा के ‘ओम्’ नाम का अर्थ
विचारकर नित्यप्रति जप किया करे।
ईश्वरप्रणिधान- अपने आत्मा को
परमेश्वर की आज्ञानुकूल समर्पित कर देवे।
ये पाँच प्रकार के नियम
उपासना योग का दूसरा अङ्ग कहाता है।
जब उपासना करना चाहें तब
एकान्त, शुद्धदेश में जाकर आसन लगा, प्राणायाम कर, बाह्य विषयों से इन्द्रियों को
रोक, मन को नाभिप्रदेश में वा हृदय, कण्ठ, शिखा अथवा मेरुदण्ड में किसी स्थान पर
स्थिर कर अपने आत्मा और परमात्मा का विवेचन करके परमात्मा में मग्न हो जाने से
संयमी होवें।
इन साधनों का अनुष्ठान
करनेवाले उपासक का आत्मा और अन्तःकरण पवित्र होकर सत्य से पूर्ण हो जाता है। यह
उपासक नित्यप्रति ज्ञान बढाकर मुक्ति तक पहुँच जाता है। जो आठ प्रहर में एक घडीभर
[चौबीस मिनट] भी इस प्रकार ध्यान करता है वह सदा उन्नति को प्राप्त होता है।
उपासना का फल
जैसे शीत से आतुर पुरुष का
अग्नि के पास जाने से शीत निवृत हो जाता है, वैसे परमात्मा का सामिप्य प्राप्त
होने से सब दोष छूटकर परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव के सदृश जीवात्मा के
गुण-कर्म-स्वभाव पवित्र हो जाते हैं। आत्मा का बल इतना बढ जाता है कि वह पर्वत के
समान दुःख आने पर भी नहीं घबराता, अपितु उन्हे सहन कर लेता है।
जो परमेश्वर की स्तुति,
प्रार्थना और उपासना नहीं करता वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है, क्योंकि जिस
परमात्मा ने इस जगत् के सब पदार्थ जीवों के सुख के लिए दे रखे हैं उसका गुण भूल
जाना, ईश्वर ही को न मानना कृतघ्नता और मूर्खता है।
परमेश्वर का कर्तृत्व
ईश्वर निराकार है, उसके
श्रोत्रादि इन्द्रियाँ नहीं हैं फिर भी अपने महान् सामर्थ्य से सब कर्म करता है।
हाथरहित होते हुए भी वह सबका ग्रहण करता है, आँख नहीं है फिर भी देखता है, कान
नहीं है फिर भी सुनता है, अन्तःकरण नहीं है फिर भी वह सबको जानता है। उस परमात्मा
अनन्त ज्ञान, अनन्त बल और अनन्त क्रिया है और सब स्वाभाविक है, अतः परमात्मा को किन्हीं
कारणों=साधनों की आवश्यकता नहीं। परमात्मा निष्क्रिय भी नहीं है। यदि वह निष्क्रिय
होता तो जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय न कर सकता। वह परमात्मा विभु=सर्वव्यापक
है तथापि चेतन होने से उसमें क्रिया भी है। सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ होने के कारण
वह जितने देश और काल में क्रिया करना उचित समझता है उतने ही देश और काल में क्रिया
करता है, न अधिक न न्यून।
अवतार निषेध वेद में ईश्वर को ‘अज’=अजन्मा और ‘अकायम’=शरीर
रहित कहा है, अतः परमेश्वर का अवतार नहीं होता। ‘जो ईश्वर अवतार न ले तो कंस, रावण
आदि दुष्टों का नाश कैसे हो’- यह शङ्का भी व्यर्थ है। जिसका जन्म हुआ है उसकी
मृत्यु भी निश्चित है। जो ईश्वर अवतार धारण किये बिना जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और
प्रलय करता है उसके सामने कंस और रावण आदि एक कीडी के समान भी नहीं। वह सर्वव्यापक
होने से कंस, रावण आदि के शरीरों में भी परिपूर्ण हो रहा है जब चाहे उसी समय
मर्मच्छेदन कर नाश कर सकता है। युक्ति से भी ईश्वर का जन्म सिद्ध नहीं होता। जैसे
अनन्त आकाश का गर्भ में आना असम्भव है उसी प्रकार अनन्त, सर्वव्यापक परमात्मा का
भी गर्भ में आना-जाना कभी सिद्ध नहीं हो सकता। जाना वा आना वहाँ हो सकता है जहाँ परमात्मा
पहले विद्यमान न हो। क्या परमेश्वर गर्भ में व्यापक नहीं था जो कहीं से आया? और
बाहर नहीं था जो भीतर से निकला। कोई भी बुद्धिमान् ईश्वर के विषय में ऐसा नहीं कह
सकता। ‘ईसा’ आदि भी ईश्वर के अवतार नहीं थे। राग-द्वेष, जन्म और मरण आदि गुणयुक्त
होने से वे भी मनुष्य ही थे।
ईश्वर और पाप-क्षमा
ईसाई, मुसलमान और पौराणिक लोग
ऐसा मानते हैं कि ईश्वर अपने भक्तों के अपराध क्षमा कर देता है, परन्तु यह बात ठीक
नहीं, क्योंकि यदि परमात्मा पाप क्षमा करे तो उसका न्याय नष्ट हो जाए और सब मनुष्य
महापापी हो जाएँ क्यों कि क्षमा की आशा से पापी पाप करनें में निर्भयता और उत्साह
अनुभव करेंगें। सब कर्मों का यथावत् फल देना ही ईश्वर का काम है, क्षमा करना नहीं।
जीव स्वतन्त्र है या परतन्त्र
जीव अपने कर्तव्य कर्मों के
करने में स्वतन्त्र और ईश्वर की व्यवस्था [फल भोगने] में परतन्त्र है। स्वतन्त्र
उसे कहते हैं जिसके अधीन शरीर, प्राण, इन्द्रियाँ और अन्तःकरण आदि हों। यदि जीव
स्वतन्त्र न हो तो उसे पाप-पुण्य का फल कभी प्राप्त नहीं हो सकता। जैसे सैनिक
सेनाध्यक्ष की आज्ञा से युद्ध में अनेक पुरुषों को मारकर भी अपराधी नहीं होता वैसे
ही यदि जीव परमात्मा की अधीनता में कार्य करे तो उसे पाप और पुण्य कुछ न लगे। उसका
फल भी परमेश्वर को ही प्राप्त हो। इसलिए यही सिद्धान्त ठीक है कि अपने
सामर्थ्यानुकूल जीव कर्म करने मे स्वतन्त्र है, परन्तु जब वह पाप-पुण्य कर चुकता
है तो ईश्वर की पराधीनता में पाप-पुण्य के फल भोगता है। परमात्मा ने जीव को बनाया
नहीं, वह अनादि है। अनादि काल से परमात्मा जीव को कर्मानुसार शरीर और इन्द्रियाँ
प्राप्त कराते हैं। वे सब जीव के अधीन हैं। इनके द्वारा पाप-पुण्य करने में जीव
स्वतन्त्र है। स्वतन्त्रता से किये गये अपने कर्मों का फल भी जीव को ही भोगना होता
है। जैसे तलवार से वध करनेवाला ही दण्ड का भागी होता है, तलवार बनानेवाला और
बेचनेवाला नहीं। इस प्रकार शरीर आदि की उत्पत्ति करनेवाला परमेश्वर उसके कर्मों का
भोक्ता नहीं होता, किन्तु जीव को भुगानेवाला होता है। यदि परमेश्वर कर्म कराता तो
कोई भी जीव पाप नहीं करता ।
जीव और ईश्वर का स्वरूप
जीव और ईश्वर दोनों चेतन हैं,
दोनों का स्वभाव पवित्र है, दोनों अविनाशी हैं तथा धार्मिकता आदि गुणों से युक्त
हैं, परन्तु इसमें परस्पर भेद भी हैं। यथा॰
1- सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करना, सबको नियम में
रखना, तथा जीवों को पाप-पुण्य के फल देना आदि धर्मयुक्त कर्म परमेश्वर के हैं तथा
जीव के सन्तानोत्पत्ति, उनका पालन-पोषण तथा शिल्प-विद्या आदि अच्छे और बुरे कर्म
हैं।
2- ईश्वर के नित्यज्ञान, आनन्द और अनन्त बल आदि गुण हैं तथा
जीव के इच्छा-द्वेष, सुख-दुःख, ज्ञान और प्रयत्न आदि गुण हैं।
3- जीव अल्प-परिमाणी तथा अल्पज्ञ है और ब्रह्म सर्वव्यापक तथा
सर्वज्ञ है।
4- ब्रह्म नित्यशुद्ध, नित्यबुद्ध, नित्यमुक्त स्वभाव है, जीव
कभी बद्ध होता और कभी मुक्त होता है।
5- ब्रह्म के सर्वव्यापक और सर्वज्ञ होने से उसे कभी भ्रम अथवा
अविद्या नहीं हो सकती, परन्तु जीव को कभी तो विद्या और कभी अविद्या होती है।
जीव और ईश्वर का परस्पर सम्बन्ध
जीव और
परमेश्वर का व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है। यहाँ कोई ऐसी शङ्का करे कि जिस स्थान में
एक वस्तु होती है उस स्थान में दूसरी वस्तु नहीं रह सकती, अतः जहाँ जीव है वहाँ
परमेश्वर की सत्ता कैसे हो सकती है, तो इस शङ्का का समाधान यह है कि यह नियम समान
आकारवाले पदार्थों में घट सकता है, असमान आकारवाले पदार्थों में नहीं है। जैसे
लोहा स्थूल और अग्नि सूक्ष्म होता है, इसलिए लोहे में विद्युत् रूपी अग्नि व्यापक
होकर एक ही स्थान में दोनों रहते हैं, वैसे ही जीव परमेश्वर से स्थूल और परमेश्वर
जीव से सूक्ष्म होने से परमेश्वर व्यापक और जीव व्याप्य है। व्याप्य-व्यापक
सम्बन्ध की भाँति ईश्वर और जीव का सेव्य-सेवक, आधाराधेय, स्वामी-भृत्य, राजा-प्रजा
और पिता-पुत्र आदि सम्बन्ध भी है।
परमेश्वर का त्रिकालदर्शित्व
‘परमेश्वर
त्रिकालदर्शी है, अतः वह भविष्यत् की बातें भी जानता है। वह जैसा निश्चय करेगा
वैसा ही जीव कर्म करेगा। इसलिए जीव स्वतन्त्र नहीं और ईश्वर जीव को दण्ड भी नहीं
दे सकता, क्योंकि जैसा ईश्वर ने अपने ज्ञान से निश्चित किया, जीव ने वैसा ही कर्म
किया। ‘ऐसी शङ्का ठीक नहीं। ईश्वर को त्रिकालदर्शी कहना मूर्खता का काम है। भूत,
भविष्यत् जीवों के लिए हैं, परमेश्वर का ज्ञान तो सदा एकरस एवं अखण्ड रहता है।
हाँ, जीवों के कर्म की अपेक्षा से परमेश्वर में त्रिकालज्ञता है, स्वतः नहीं। जैसे
स्वतन्त्रता से जीव कर्म करता है, वैसे ही सर्वज्ञता से ईश्वर जानता है ।
अद्वैतवाद खण्डन
जीव और
ब्रह्म पृथक-पृथक हैं। जीव ब्रह्म नहीं हो सकता और ब्रह्म जीव नहीं हो सकता,
परन्तु नवीनवेदान्ती- ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’, ‘अहं ब्रह्मास्मि’, तत्त्वमसि’ और
‘अयमात्मा ब्रह्म’ इन उपनिषद् वाक्यों से जीव-ब्रह्म एकता प्रतिपादित करते हैं।
नवीनवेदान्तियों की यह मान्यता ठीक नहीं। ये उपनिषद् वाक्य तो स्पष्ट रूप में
द्वैत की घोषणा कर रहे हैं। ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ का अर्थ है कि- जीव ज्ञानवाला और
ब्रह्म प्रकृष्ट [सर्वोत्कृष्ट] ज्ञानवाला है। ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का भाव यह है कि
मैं ब्रह्मस्थ हूँ। जैसे ‘मञ्चाः क्रोशन्ति’ का अर्थ होता है- मञ्चस्थ पुरुष
पुकारते हैं। इसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिए। जैसे कोई किसी से कहे मैं और वह एक
हैं, अर्थात् अविरोधी हैं, वैसे ही जो समाधिस्थ जीव परमेश्वर में प्रेम-बद्ध होकर
निमग्न होता है, वह कह सकता है कि मैं और ब्रह्म एक अर्थात् अविरोधी एक अवकाशस्थ हैं।
जो जीव परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव के अनुकूल अपने गुण-कर्म-स्वभाव बनाता है वही
साधर्म्य से ब्रह्म के साथ एकता कह सकता है। ‘तत्त्व मसि’ में आचार्य श्वेतकेतु से
कह रहे हैं- हे श्वेतकेतो ! जो सत्यस्वरूप और अपना आत्मा आप ही है, तू उसी
अन्तर्यामी परमात्मा से युक्त है। ‘अयमात्मा ब्रह्म’ का तात्पर्य है कि समाधिस्थ
अवस्था में जब योगी को परमेश्वर का प्रत्यक्ष होता है तब वह कहता है कि जो ब्रह्म
मुझमें व्यापक है वही ब्रह्म सर्वत्र व्यापक है।
यदि जीव भी
ईश्वर है तो ईश्वर में इतने दोष आएँगे-
1- वह एकदेशी हो जाएगा।
2- एकदेशी होकर अल्पज्ञ और बन्धन में पडकर कर्म फल का भोक्ता
हो जाएगा।
3- अविद्यारूप अन्तःकरण जहाँ-जहाँ जाएगा, वहाँ-वहाँ के ब्रह्म
को अज्ञानी बना देगा।
4- बाहर और भीतर के ब्रह्म के टुकडे हो जाएँगे। यदि टुकडे हो
गये तो अखण्ड नहीं रहा और जो अखण्ड है तो अज्ञानी नहीं।
5- जैसे शरीर के एकदेश में फोडा होने से सर्वत्र दुःख फैल जाता
है वैसे ही ब्रह्म के एक देश [जीव] में अज्ञान, सुख, दुःख, क्लेशों की उपलब्धि
होने से सब ब्रह्म दुःखादि के अनुभव से युक्त हो जाएगा।
सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्- यह छान्दोग्य- वाक्य
अद्वैत का प्रतिपादक न होकर यह कह रहा है कि जीव और प्रकृति ब्रह्म के सदृश नहीं,
किन्तु उससे न्यून हैं। इससे जीव तथा प्रकृति का और कार्यरूप जगत् का अभाव और
निषेध नहीं है। ये सब हैं, परन्तु ब्रह्म के तुल्य नहीं हैं। जैसे कोई किसी से कहे
कि इस नगर में अद्वितीय धनाढ्य देवदत्त है, इससे यह सिद्ध हुआ कि देवदत्त के सदृश
इस नगर में दूसरा धनाढ्य नहीं है, न्यून तो हैं। ऐसा ही प्रतिपादन उक्त
उपनिषद्-वाक्य में है ।
सगुण और
निर्गुण
प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने स्वाभाविक गुणों से सहित होने के
कारण सगुण और विरोधी गुणों से रहित होने से निर्गुण भी होता है। जैसे पृथिवी रूप,
स्पर्श और गन्धादि गुणों से सहित और चेतन के ज्ञान आदि गुणों से रहित है, वैसे
चेतन में इच्छादि गुण हैं, परन्तु रूप आदि जड के गुण नहीं हैं। इसी प्रकार
परमेश्वर भी अपने अनन्त ज्ञान और बलादि गुणों से युक्त होने से सगुण और रूप आदि जड
के तथा द्वेष आदि जीव के गुणों से रहित होने से निर्गुण कहाता है। ‘जब परमेश्वर
जन्म नहीं लेता तब निर्गुण और जब अवतार लेता है तब सगुण कहलाता है’- यह अज्ञानियों
का प्रलाप मात्र है। ईश्वर को अवतार लेने की कोई आवश्यकता नहीं। वे सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता
और सर्वशक्तिमत्ता के कारण अपने सब कार्य बिना किसी अन्य की सहायता लिये स्वयं कर
लेते हैं।
परमेश्वर
रागी है या विरक्त
परमेश्वर न रागी है और न विरक्त। राग अपने से भिन्न उत्तम
पदार्थों में होता है। ईश्वर से कोई पदार्थ पृथक् वा उत्तम नहीं, इसलिए उसमें राग
का सम्भव नहीं और जो प्राप्त को छोड देवें उसे विरक्त कहते हैं। ईश्वर व्यापक होने
से किसी भी पदार्थ को छोड नहीं सकता, अतः वह विरक्त नहीं।
ईश्वर में
इच्छा है या नहीं
जैसी इच्छा जीव में होती है वैसी ईश्वर में नहीं। इच्छा उस
वस्तु की होती है जो अप्राप्त हो, उत्तम हो, जिसकी प्राप्ति से सुख विशेष की
उपलब्धि हो। परमेश्वर को कोई वस्तु अप्राप्त नहीं, न कोई पदार्थ उससे उत्तम है, पूर्ण
सुखयुक्त होने के कारण उसे सुख की अभिलाषा भी नहीं, इसलिए ईश्वर में इच्छा नहीं है।
हाँ, ईश्वर में ‘ईक्षण’ [अर्थात् सब प्रकार की विद्या का दर्शन और सब सृष्टि का
निर्माण करना] तो है।
2-वेद विषय
वेदज्ञान
यस्मादृचो
अपातक्षन् यजुर्यस्मादपाकषन् ।
सामानि यस्य
लोमान्यथर्वाङ्गिरसो मुखम् ।
स्कम्भन्तं
ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ॥
- अथर्व॰ 10।7।20
जो परमात्मा सबको उत्पन्न
करके धारण कर रहा है, उसी परमात्मा से ॠग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद
उत्पन्न हुए।
सृष्टि के आरम्भ में
स्वयम्भू, सर्वव्यापक, शुद्ध, सनातन, निराकार, परमेश्वर सनातन जीवरूप प्रजा के
कल्याणार्थ वेद द्वारा सब विद्याओं का उपदेश करते हैं। यहाँ कोई ऐसी शङ्का करे कि
परमेश्वर निराकार है- उसका कोई मुख नहीं तो बिना मुख के उसने वर्णों का उच्चारण
कैसे किया, क्यों कि वर्णों के उच्चारण में तालु आदि स्थान जिह्वा आदि का प्रयत्न
आवश्यक है तो उसका उत्तर यह है परमेश्वर सर्वशक्तिमान् और सर्वव्यापक है। अपनी
व्याप्ति के कारण परमात्मा को वेद-उपदेश करने के लिए मुखादि की अपेक्षा
नहीं। वर्णोंच्चारण अपने से भिन्न के बोध होने के लिए किया जाता है, अपने लिए नहीं
मन में जिह्वा के व्यापार बिना ही अनेक व्यवहारों का विचार और शब्दोच्चारण होता
रहता है। कानों को बन्द करके देखो और सुनो कि बिना मुख और जिह्वा के कैसे अद्भुत
शब्द हो रहे हैं। परमेश्वर सर्वव्यापक है। वह जीवों के भीतर भी अन्तर्यामिरूप में स्थित है। जीवों में स्थित होने के कारण बिना मुख से बोले ही वह
परमात्मा अखिल वेदविद्या का उपदेश जीवात्मा में प्रकाशित कर देता है। सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने ‘अग्नि’
के हृदय में ॠग्वेद का, ‘वायु’ के हृदय में यजुर्वेद का ‘आदित्य’ के हृदय में
सामवेद का और ‘अङ्गिरा’ के हृदय में अथर्ववेद का प्रकाश किया। ये ही चार ॠषि सब
जीवों से अधिक पवित्र आत्मा थे, अन्य उनके सदृश नहीं थे, अतः पवित्र विद्या का
प्रकाश भी उन्ही के हृदय में वेद- [संस्कृत]- भाषा में किया। यह वेदभाषा ही आधुनिक
सब भाषाओं का कारण है। वेदभाषा किसी देश-विदेश की भाषा नहीं है। इसके पढने में
सबको एक-जैसा परिश्रम करना पडता है, अतः परमेश्वर पर पक्षपात का दोष नहीं आता।
वेद ईश्वरीय ज्ञान
वेद ईश्वरकृत हैं, इसमें निम्न प्रमाण हैं-
1- जैसा ईश्वर पवित्र, सर्वविद्यावत्, शुद्ध-गुणकर्मस्वभाव,
न्यायकारी, दयालु आदि गुणवाला है, वैसे जिस पुस्तक में ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव
के अनुकूल कथन हो, वह ज्ञान ईश्वर-प्रदत्त होता है, अन्य नहीं।
2- जिसमें सृष्टिक्रम, प्रत्यक्षादि प्रमाण, आप्तों के और
पवित्रात्मा के व्यवहार से विरूद्ध कथन न हो, वह ज्ञान ईश्वरोक्त होता है।
3- जैसा ईश्वर का निर्भ्रम ज्ञान वैसा जिस पुस्तक में
भ्रान्तिरहित ज्ञान का प्रतिपादन हो वह ईश्वरोक्त है।
4- जैसा शिक्षक परमेश्वर है और जैसा सृष्टि क्रम रखा है, वैसा
ही ईश्वर, सृष्टिकार्यकारण और जीव का प्रतिपादन जिसमें होवे वह परमेश्वरोक्त पुस्तक
होता है।
5- जो प्रत्यक्षादि प्रमाण विषयों से अविरुद्ध, शुद्धात्मा के
स्वभाव से विरुद्ध न हो वह ग्रन्थ परमेश्वरोक्त होता है।
वेद इसी
प्रकार के ग्रन्थ हैं, अतः परमेश्वरप्रोक्त हैं। बाइबल, कुरान आदि पुस्तकें इन
कसौटियों पर खरी नहीं उतरतीं, अतः वे ईश्वरोक्त नहीं हैं।
वेदज्ञान की आवश्यकता
‘वेदज्ञान
की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि मनुष्य लोग क्रमशः ज्ञान बढाकर पुस्तक भी रच लेगें’-
यह तर्क ठीक नहीं। मनुष्य का ज्ञान स्वाभाविक नहीं अपितु नैमित्तिक है। ईश्वरीय
ज्ञान कि सहायता के बिना मनुष्य पुस्तक रचना नहीं कर सकता। जङ्गली मनुष्य सृष्टि
को देखकर भी विद्वान् नहीं होते, परन्तु जब उन्हें कोई शिक्षक मिल जाता है तब
विद्वान् हो जाते हैं। साथ ही आजकल भी पढे बिना कोई भी विद्वान् नहीं होता।
गुरु-शिष्य परम्परा से ही ज्ञानधारा का प्रवाह चला करता है। योगदर्शन में कहा है-
स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्– वह परमात्मा सृष्टि के आरम्भ में
उत्पन्न हुए अग्नि आदि ॠषियों का भी गुरु, अध्यापक है। यदि परमात्मा उन आदि सृष्टि
के ॠषियों को वेद-विद्या न पढाता और वे अन्यों को न पढाते तो सब लोग अविद्वान् ही
रह जाते। किसी बालक को जन्म से एकान्त देश, अविद्वानों वा पशुओं के सङ्ग में रख
दें तो वह जैसी संगति में रहेगा वैसा ही हो जाएगा। इसका दृष्टान्त जङ्गली भील आदि
हैं। जब तक आर्यावर्त्त देश से शिक्षा नहीं गई तब तक मिस्र, यूनान तथा यूरोप आदि
देशों के मनुष्यों में कुछ भी विद्या नहीं हुई थी। इससे यह स्पष्ट है कि सृष्टि के
आदि में परमात्मा से विद्या और सुशिक्षा पाकर ही मनुष्य उतरोत्तर काल में विद्वान्
होते चले आ रहे हैं।
ब्राह्मणग्रन्थ
जब बहुत से
आत्माओं में वेदार्थ प्रकाश हुआ तब ॠषि-मुनियों ने वेदार्थ और ॠषि-मुनियों के
इतिहासपूर्वक ग्रन्थ बनाये। ब्रह्म अर्थात् वेद का व्याख्यान होने से उन ग्रन्थों
का नाम ब्राह्मण हुआ। सर्वप्रथम जिस-जिस मन्त्रार्थ का दर्शन जिस-जिस ॠषि को हुआ,
उस-उस ॠषि का नाम स्मरणार्थ उस मन्त्र अथवा सूक्त के साथ लिखा आता है। ये ॠषि
मन्त्र कर्त्ता नहीं थे, अपितु मन्त्रार्थ द्रष्टा थे।
ब्राह्मण
ग्रन्थ वेद नहीं हैं। ब्राह्मणग्रन्थों के आरम्भ वा अध्याय समाप्ति पर कहीं वेद
शब्द नहीं लिखा जाता। महर्षि यास्क भी जब वेद का प्रमाण देते हैं तब लिखते हैं-
‘इत्यपि निगमो भवति’ परन्तु ब्राह्मणग्रन्थों का उद्धारण देते हुए लिखते हैं- ‘इति
ब्राह्मणम्’ इससे स्पष्ट है कि वेद और ब्राह्मण भिन्न-भिन्न हैं। ब्राह्मणग्रन्थों
में ॠषि-महर्षि और राजाओं के इतिहास उपलब्ध होते हैं और इतिहास जन्म के पश्चात्
लिखा जाता है। इससे भी यह सिद्ध है कि ब्राह्मण ग्रन्थ वेद नहीं हैं। वेदों में
किसी का इतिहास नहीं है।
शाखा-ग्रन्थ
शाखा का
अर्थ भी व्याख्यान होता है। इन शाखाओं की संख्या 1127 है। चार मूल वेद मिलकर यह
संख्या 1131 हो जाती है। परमेश्वरकृत चारों वेद मूलवृक्ष और आश्वलायनादि सब शाखा
ॠषि-मुनिकृत हैं, परमेश्वरकृत नहीं।
वेद का नित्यत्व
जैसे
माता-पिता अपनी सन्तानों पर कृपादृष्टि कर उन्नति चाहते हैं वैसे ही परमात्मा ने
सब मनुष्यों पर कृपा करके वेदों का प्रकाश किया है जिससे मनुष्य अविद्या-अन्धकार
और भ्रमजाल से छूटकर विद्या-विज्ञानरूप सूर्य को प्राप्त होकर अत्यानन्द में रहें
और विद्या तथा सुखों की वृद्धि करते जाएँ। परमेश्वर नित्य है, अतः उसके द्वारा
प्रदत्त वेदज्ञान भी नित्य है। यह वेद ‘शब्द-अर्थ और सम्बन्ध’ रूप में नित्य हैं,
पुस्तक रूप में नहीं, क्योंकि पत्र और स्याही की बनी पुस्तक नित्य नहीं हो सकती। ‘परमात्मा
ने ॠषियों को ज्ञान दिया होगा और उस ज्ञान से उनलोगों ने वेद बना लिये होंगे’- यह
कहना भी ठीक नहीं। ज्ञान ज्ञेय के बिना नहीं होता। सर्वज्ञ परमात्मा के बिना किसी
की यह सामर्थ्य नहीं कि वह षड्जादि तथा उदात्तादि स्वर के ज्ञानपूर्वक तथा
गायत्र्यादि छन्दों से युक्त सर्वज्ञानमय शास्त्र बना सके। हाँ वेद के पढने के
पश्चात् व्याकरण, निरुक्त और छन्द आदि ग्रन्थ ॠषि-मुनियों ने विद्या के प्रकाश के
लिए बनाये हैं। जो परमात्मा वेदों का प्रकाश न करे तो कोई कुछ भी नहीं बना सके। वेद
परमेश्वरोक्त हैं, इसलिए इन्हीं के अनुसार सब लोगों को चलना चाहिए और जो कोई किसी
से पूछे कि ‘तुम्हारा क्या मत है?’ तो उसको यही उत्तर देना कि हमारा मत वेद है, जो
कुछ वेदों में कहा है हम उसको मानते हैं।
इति सप्तमः समुल्लासः सम्पूर्णः ॥7॥